पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२६५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२५९
उत्पत्ति प्रकरण।

हे रामजी! जो कुछ जगत् भासता है सो कुछ आदि से उपजा नहीं—सब आकाशरूप है। रोकनेवाली कोई भीति नहीं है, बड़े विस्तार से जगत् है परन्तु स्वप्नवत् है। जेसे थम्भे में बनाये बिना पुतली शिल्पी के मन में भासती है और थम्भे में कुछ बनी नहीं तैसे ही आत्मरूपी थम्भा है उसमें जगत् रूपी पुतलियों को संवेदन रचता है परन्तु वह कुछ पदार्थ नहीं है। आत्मसत्ता ही ज्यों की त्यों है। हे रामजी! जैसे एक स्थान में दो पुरुष लेटे हों और उनमें एक जागता हो और दूसरा स्वप्न में हो तो जो स्वप्न में है उसको बड़े युद्ध होते भासते हैं और जागे हुए को आकाशरूप है तैसे ही जो प्रबोध आत्मज्ञानवान है उसको जगत् का सुषुप्ति की नाई आभाव है और जो अज्ञानी है उसको नाना प्रकार के व्यवहारों सहित स्पष्ट भासता है। जैसे वसन्तऋतु में पत्र, फल और गुच्छे रससहित भासते हैं तैसे ही आत्मसत्ता चैतन्यता से जगतरूप भासती है। जैसे स्वर्ण में द्रवता सदा रहती है परन्तु जब अग्नि का संयोग होता है तभी भासती है। हे रामजी! आत्मा और जगत् में कुछ भेद नहीं। जैसे अवयवी और अवयवों में और पृथ्वी और गन्ध में कुछ भेद नहीं तैसे ही आत्मा और जगत् में कुछ भेद नहीं । ब्रह्मसचा ही संवेदन से जगतरूप होकर भासती है और दूसरी कोई वस्तु नहीं। जब महाप्रलय होता है और सर्ग नहीं होता तब कार्यकारण की कल्पना कोई नहीं होती, केवल चिन्मात्र सचा होती है और उसमें फिर चिदाकाश जगत् भासता है तो वही रूप हुआ। जो तुम कहो कि इस जगत् का कारण स्मृति है तो सुनो जब महाप्रलय होता है तब ब्रह्माजी तो विदेह मुक्त होते हैं फिर वह जगत के कारण कैसे हों और जो तुम स्मृति का कारण मानो तो स्मृति भी अनुभव में होती है जो स्मृति से जगत् हुआ तो भी अनुभवरूप हुआ। रामजी ने पूछा, हे भगवन्! पद्म राजा के मन्त्री नौकर और सब लोग विदूरथ को कैसे जाकर मिले? यह वार्ता फिर कहिये। वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! केवल चेतनसंवित् सबका अपना आप है उस संवित् के आश्रय से जैसा संवेदन फुरता है तैसा ही रूप हो भासता है। हे रामजी! जब राजा विदूरथ मृतक होने लगा तब उसकी