पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२६६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२६०
योगवाशिष्ठ।

वासना उनमें थी और मन्त्री, नौकर आदिक राजा के अङ्ग हैं इस कारण वैसे ही मन्त्री और नौकर राजा को मिले। हे रामजी! जैसी भावना संवेदन में दृढ़ होती है तैसा ही रूप हो भासता है। एक चल पदार्थ होते हैं और एक अचल होते हैं, जो अचल पदार्थ हैं उनका प्रतिविम्ब आदर्श में भासता है और चल पदार्थ रहता नहीं भासता, इससे उसका प्रतिबिम्ब नहीं भासता। तैसे ही जिस पदार्थ की तीव्र संवेग भावना होती है उसी का प्रतिविम्ब चेतन दर्पण में भासता है, अन्यथा नहीं भासता। जैसे तीन वेगवान बड़ा नद समुद्र में शीघ्र ही जा मिलता है और दूसरे नहीं प्राप्त हो सकते तैसे ही जिसकी दृढ़ वासना होती है वह इसके अनुसार शीघ्र जाकर पाता है। हे रामजी! जिसके हृदय में अनेक वासना होती हैं और अच्छी तीव्रता होती है उसी की जय होती है। जैसे समुद्र में अनेक तरङ्ग होते हैं तो कोई उपजता है और कोई नष्ट हो जाता है, कोई सदृश होता है कोई विपर्यक होता है; उसके सदृश मन्त्री और नौकर भी हुए। हे रामजी! एक एक चिद्अणु में अनेक सृष्टि स्थित होती हैं, पर वास्तव में कुछ नहीं केवल चिदाकाश ही चिदाकाश में स्थित है। यह जो जगत् भासता है सो आकाश ही रूप है जो जानवरूप होकर असत् हो सतरूप की नाई भासता है। जैसे पत्र, फल, फूल सब वृक्षरूप हैं और वृक्ष ही ऐसे रूप होकर स्थित हैं तैसे ही अनन्त शक्ति परमात्मा, अनेकरूप होकर भासता है। हे रामजी! द्रष्टा, दर्शन, दृश्य, त्रिपुटी ज्ञानी को जन्मपद भासता है और अज्ञानी को द्वैतरूप जगत होकर भासता है। कहीं शून्य भासता है; कहीं तम भासता है और कहीं प्रकाश भासता है। देश, काल क्रिया, द्रव्य आदिक सब जगत् आदि, अन्त और मध्य से रहित स्वच्छ आत्मसत्ता अपने आप में स्थित है जैसे सोमजल में तरङ्ग होते हैं सो जल ही रूप हैं तैसे ही अहं, त्वं आदिक जगत् भी बोधरूप है और सदा अपने आपमें स्थित है—उसमें द्वैतकल्पना का अभाव है।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे लीलोपाख्याने प्रयोजन वर्णनन्नाम
त्रिचत्वारिंशत्तमस्सर्गः॥४३॥