पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२६७

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उत्पति प्रकरण।


रामजी ने पूछा, हे भगवन्! अहं, त्वं आदिक दृश्यभ्रान्ति कारण बिना परमात्मा से कैसे उदय हुई है। जिस प्रकार मैं समझूँ उसी प्रकार मुझको समझाइये। वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जो कुछ कारण कार्य जगत् भासता है वह परमात्मा से उदय हुआ है अर्थात् संवेदन के फुरने से इकट्ठे हो पदार्थ भास पाये हैं और सर्वदा, सर्वप्रकार, सर्वात्मा, अजरूप अपने आप में स्थित हैं। हे रामजी! यह सर्व शब्द और अर्थरूप कलना जो भासी है, सो ब्रह्मरूप है; ब्रह्म से कुछ भिन्न नहीं भोर ब्रह्मसत्ता सर्व शब्द अर्थ की कलना से रहित अपने आप में स्थित है। जैसे भूषण सुवर्ण से भिन्न नहीं और तरङ्ग जल से भिन्न नहीं तैसे ही ब्रह्म से भिन्न जगत् नहीं-ब्रह्मस्वरूप ही है। हे रामजी! ईश्वर जो आत्मा है सो जगतरूप है, जगत् ईश्वररूप है। जैसे सुर्वण भूषणरूप है और भूषण सुवर्णरूप है अर्थात् सुर्वण में भूषण शब्द और अर्थ कल्पित हैंवास्तव में नहीं—तैसे ही जगत् आत्मा का आभासरूप है—वास्तव में कुछ नहीं। हे रामजी! जो कुछ जगत् है सो ब्रह्मरूप है ब्रह्म से भिन्न कुछ नहीं। जैसे अवयव अवयवी से भिन्न नहीं तैसे ही आत्मा से जो कुछ अवयवी जगत् है सो भिन्न नहीं। आत्मा में संवेदन के फुरने से तन्मात्रा फुरी है और आत्मा में ही इनका उपजना सम हुआ है, पीछे विभागकल्पना हुई है इसलिये उनसे जो भूत हुए हैं वे आत्मा से अन्य नहीं। जैसे शिला में चितेरा भिन्न-भिन्न पुतली कल्पता है सो शिलारूप ही हैं; भिन्न कुछ नहीं; तैसे ही अहं त्वं आदिक जगत् चिद्घन आत्मा में मनरूपी चितेरे ने कल्पा है सो चिद्घनरूप ही है; कुछ भिन्न नहीं जैसे जल में तरङ्ग स्थित होते हैं सो जलरूप ही हैं; तरङ्गों का शब्द और अर्थ जल में कोई नहीं; तैसे ही आत्मा जगत् स्थित है, पर जगत् के शब्द और अर्थ से रहित है। हे रामजी! जगत् परमपद से भिन्न नहीं और परमपद जगत् बिना नहीं; केवल चिप अपने आपमें स्थित है। जैसे वायु और स्पन्द में कुछ भेद नहीं है स्पन्द और निस्स्पन्द दोनों रूप वायु के ही हैं। जव स्पन्दरूप होता है तब स्पर्शरूप होकर भासता है और निस्स्पन्द हुए स्पर्श नहीं भासता; तैसे ही जगत् और ब्रह्म में कुछ भेद नहीं; जब