पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२६९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२६३
उत्पत्ति प्रकरण।

और तरङ्ग असत् हैं पर सत् रूप हो भासती हैं; तैसे ही आत्मा में असत् रूप जगत् त्रिलोकी भासती है। जब चित्तसंवित् में संवेदन फुरता है तब जगत् भासता है और जब संवेदन नहीं फुरता तब जगत् भी नहीं भासता। जगत् कुछ ब्रह्म से मित्र नहीं। जैसे बीज और वृक्ष में; क्षीर और मधुरता में; मिरच और तीक्ष्णता में; समुद्र और तरङ्ग में और वायु और स्पन्द में कुछ भेद नहीं होता तैसे ही आत्मा भोर जगत् में कुछ भेद नहीं। जैसे अग्नि में उष्णता स्वाभाविक स्थित है तैसे ही निराकार आत्मा में सृष्टि स्वाभाविक ही स्थित है। हे रामजी! यह जगत् ब्रह्मरूपी रत्न का किञ्चन है; जैसा जैसा किञ्चन होता है तैसा ही तैसा होकर भासता है। अकारण पदार्थ अकारण ही होता और जिस अधिष्ठान में भासता है उससे अनन्यरूप होता है; अधिष्ठान से भिन्न उसकी सत्ता नहीं होती; तैसे ही यह जगत् आत्मा में अनन्यरूप होता है कुछ उपजा नहीं, परन्तु संवेदन फुरने से भासता है। जितने जगत् और वासना हैं उनका बीज संवेदन है इससे वे भ्रम हैं। इसलिये संवेदन के प्रभाव का पुरुषार्थ करो; जब संवेदन का प्रभाव होगा तब जगत् भ्रम नष्ट होगा। वास्तव में कुछ न उपजा है और न कुछ नष्ट होता है; सर्व शान्तरूप चिद्घन ब्रह्म शिलाधन की नाई अपने आपमें स्थित है। हे रामजी! चित् परमाणु में चैत्यता से अनेक सृष्टि भासती हैं। उन सृष्टियों में जो परमाणु हैं उन परमाणुओं के भीतर और सृष्टि स्थित हैं उनकी कुछ संख्या नहीं। जैसे जल में अनेक तम्ङ्ग होते हैं उनमें से कोई गुप्त और कोई प्रकट होते हैं पर वे सब जल की शक्तिरूप हैं और जैसे जाग्रत् स्वप्न और सुषुप्ति अवस्था जीवों के भीतर स्थित हैं, पर कोई गुप्त है कोई प्रकटरूप है। हे रामजी! जब तक संवेदन द्वैत के साथ मिला हुआ है तब तक सृष्टि का अन्त नहीं। जब चित्त उपशम होगा तब जगतभ्रम मिट जावेगा। जब भोगों में कुछ भी वृत्ति न उपजे तब जानिये कि आत्मपद प्राप्त होगा। यह श्रुति का निश्चय है। हे रामजी! ज्यों-ज्यों ममत्व दूर होता है त्यों-त्यों बन्धनों से मुक्त होता है। जब अहंभाव अर्थात् जीवत्वभाव निर्वाण होता है तब जन्मों की संपदा नष्ट हो जाती हैं, केवल