पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२७

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वैराग्य प्रकरण।

दायी पदार्थों का निरादर करते हैं। अन्तःपुर में उनकी माता नाना प्रकार के हीरे और मणि के भूषण देती हैं तो उनको भी डाल देते हैं अथवा किसी निर्धन को दे देते हैं; प्रसन्न किसी पदार्थ से नहीं होते। सुन्दर स्त्रियाँ नाना प्रकार के भूषणों सहित महामोह करनेवाली निकट आकर उनकी प्रसन्नता के निमित्त लीला और कटाक्ष करती हैं वे उनको भी विषवत् जानते हैं। जैसे पपीहा और किसी जल को नहीं पीता वैसे ही वे जब अन्तःपुर में जाते हैं तब उन स्त्रियों को देखकर क्रोधवान होते हैं। हे राजन्! उनको कुछ भला नहीं लगता वे तो किसी बड़ी चिंन्ता में मग्न हैं। तृप्त होकर भोजन नहीं करते सुधावन्त रहते हैं उन्हें कुछ न पहिरने भोर खाने पीने की इच्छा है, न राज्य की इच्छा है और न इन्द्रियों के किसी सुख की इच्छा है। वे तो उन्मत्त की नाई बैठे रहते हैं और जब हम कोई सुखदाई पदार्थ छलादिक ले जाते हैं तब क्रोध करते हैं। हम नहीं जानते कि क्या चिन्ता उनको हुई है जो एक कोठरी में पद्मासन लगाये हाथ पर मुख धरे बैठे रहते हैं। जो कोई बड़ा मन्त्री आकर पूछता है तो उससे कहते हैं कि "तुम जिसको सम्पदा मानते हो वह आपदा है और जिसको आपदा जानते हो वह आपदा नहीं है। संसार के नाना प्रकार के पदार्थ जो रमणीय जानते हो वे सब भूठे हैं पर इसी में सब डूबे हैं। ये सब मृगतृष्णा के जलवत् है; इनको सत्य जान मूर्ख हिरण दौड़ते और दुःख पाते हैं"। हे राजन्! वे कदाचित् बोलते हैं तो ऐसे बोलते हैं और कुछ उनको सुखदायी नहीं भासता। जो हम हँसी की वार्ता करते हैं तो वे हँसते भी नहीं। जिस पदार्थ को प्रीतिसंयुक्त लेते थे उस पदार्थ को अब डाल देते हैं और दिन पर दिन दुर्वल होते जाते हैं। जैसे मेघ की बुन्द से पर्वत चलायमान नहीं होते वैसे ही वे भी चलायमान नहीं होते, और जो बोलते हैं तो ऐसे कहते हैं कि न राज्य सत्य है, न भोग सत्य है, न यह जगत् सत्य है, न भ्राता सत्य है और मित्र सत्य है। मिथ्या पदार्थों के निमित मूर्ख यन करते हैं। जिनको सब सत्य और सुखदायक जानते हैं वे बन्धन के कारण हैं। जो कोई राजा अथवा पण्डित इनके पास जाता है तो उनको