पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२७०

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योगवाशिष्ठ।

शुद्धरूप ही होता है और तब स्थावर जङ्गमरूप जगत् सब आत्मरूप प्रतीत होता है। जैसे समुद्र को तरङ्ग और बुबुदे सब अपने आपरूप भासते हैं तैसे ही ज्ञानवान को सब जगत् आत्मरूप भासता है। हे रामजी! शुद्ध आत्मसत्ता में जो संवेदन फुरा है उसने आपको ब्रह्मरूप जाना और भावना करके संकल्परूप नाना प्रकार का जगत् रचा है पर उसको अन्तर अनुभव असत्यरूप किया। उसमें कहीं निमेष में अनेक युगों का अन्त भासता है और कहीं अनेक युगों में एक निमेष का अनुभव होता है।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे जगत्किञ्चनवर्णनन्नाम
चतुश्चत्वारिंशत्तमस्सर्गः॥४४॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! चिद् परमाणु में जो एक निमेष होता है उसके लाखवें भाग में जगतों के अनेक कल्प फुरते हैं। और उन सृष्टियों में जो परमाणु हैं उनमें सृष्टि फुरती हैं। जैसे समुद्र में तरङ्ग फुरते हैं सो जलरूप ही तरङ्ग शब्द और उसका अर्थ भ्रमरूप है—तैसे ही आत्मा में भ्रमरूप अनेक सृष्टि फुरती हैं। जैसे मरुस्थल में मृगतृष्णा की नदी चलती दृष्टि आती है तैसे ही आत्मा में यह जगत् भासता है। जैसे स्वप्नसृष्टि और गन्धर्वनगर भासते हैं; जैसे कथा के अर्थ चित्त में फुरते हैं और संकल्पपुर भासता है; तैसे ही जगत् असत् रूप सत् हो भासता है। इतना सुन रामजी ने पूछा, हे ज्ञानवानों में श्रेष्ठ! जिस पुरुष को विचार द्वारा सम्यक ज्ञान हुआ और निर्विकल्प आत्मपद की प्राप्ति हुई है उसको अपने साथ देह कैसे भासती है; उसकी देह कैसे रहती है और देह प्रारब्ध से उसका शरीर कैसे रहता है? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी। आदि जो ब्रह्मशक्ति में संवेदन फुरा है उसका नाम नीति हुआ है। उसमें जो संभावना की है कि यह पदार्थ ऐसे होगा; इससे होगा और इतने काल रहेगा वैसे ही अनेक कल्प पर्यन्त होता है। जितना काल उसने धारा है उतने काल का नाम नीति है । महासत् भी उसी को कहते हैं और महाचेतना भी उसी को कहते हैं। महाशक्ति भी उसी का नाम है और महाअदृष्ट व महाकृपा भी वही है और महाउद्भव भी उसी को कहते हैं। अर्थ यह कि वह नीति अनन्त ब्रह्माण्डों की उपजानेवाली है।