पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२७१

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उत्पत्ति प्रकरण।

जैसा फुरना दृढ़ हुआ है तैसा ही रूप होकर स्थित है। यह स्थावररूप है, यह जङ्गम है, यह दैत्य है, यह देवता है, यह नाग है, यह नागिनी है, ब्रह्मा से तृणपर्यन्त जैसा उसमें अभ्यास है उसी प्रकार स्थित है। स्वरूप से ब्रह्मसत्ता का व्यभिचार कदाचित् नहीं हुआ वह तो सदा अपने आप में स्थित है। जो ज्ञानवान पुरुष है उसको सब ब्रह्मस्वरूप भासता है और जो भवानी है उसको जगत् और नीति भी भिन्न भासती है। ज्ञानवान को सब अचल ब्रह्मसत्ता ही भासता है और अज्ञानियों को चलनरूप जगत् भासता है। वह जगत् ऐसा है जैसे कि आकाश में वृक्ष भासते हैं और शिला के उदर में मूर्ति होती है। जो ज्ञानवान हैं उनको सर्ग और निमित्त सबज्ञानरूप ही भासते हैं। जैसे अवयवी के अवयव अपना ही रूप होते हैं तैसे ही ब्रह्मसत्ता के अवयव ब्रह्म नित्य सर्गादिक अपना ही रूप हैं। हे रामजी! उसी नीति को दैव भी कहते हैं। जो कुछ किसी को प्राप्त होता है वह उसी देव की आज्ञा से प्राप्त होता है, क्योंकि आदि से यही निश्चय धरा है कि इस साधन से यह फल प्राप्त होगा। जैसा साधन होता है तैसा ही फल अवश्य सबको उस दैव से प्राप्त होता है। इस कारण नीति को दैव कहते हैं और देव को नीति कहते हैं। हे रामजी! पुरुष जो कुछ पुरुषार्थ करता है उसके अनुसार फल प्राप्त होता है। इसी कारण इसका नाम नीति है और इसी का नाम पुरुषार्थ है। तुमने जो मुझसे दैव और पुरुषों का निर्णय पूछा और मैंने कहा उसी की तुम पालना करो। इसी का नाम पुरुषार्थ है और इसका जो फल तुमको प्राप्त हो उसका नाम दैव है। हे रामजी! जो पुरुष ऐसा देवपरायण हुआ है कि मुझको जो कुछ दैव भोजन करावेगा सो ही करूँगा और मौनधारी होके अक्रिय हो बैठे उसको जो आय प्राप्त हो सो भी नीति है और जो पुरुष भोगों के निमित्त पुरुषार्थ करता है वह भोगों को भोगकर मोक्षपर्यन्त अनेक शरीरों को धारेगा; यह भी नीति है। हे रामजी! जो आदि संवित् में संवेदन फुरकर भवितव्यता धरी है उसही प्रकार स्थित है उसका नाम भी नीति है। उस नीति को ब्रह्मा विष्णु और रुद्र भी उलंघन नहीं कर सकते तो और कैसे