पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२७२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२६६
योगवाशिष्ठ।

उल्लङ्घि सके। हे रामजी! जो पुरुष पुरुषार्थ को त्याग बैठे हैं उनको फल नहीं प्राप्त होता—यह भी नीति है और जो पुरुष फल के निमित्त पुरुषार्ष करता है उसको फल प्राप्त होता है—यह भी नीति है। जो पुरुष प्रयत्न को त्यागकर निष्क्रिय हो बैठे हैं और मन से विषयों की चित्त में वासना करते हैं वे निष्फल ही रहते हैं मोर जो पुरुष कर्तृत्व को त्याग कर चित्त की वृत्ति से शून्य देवपरायण हो रहे हैं और विषयों की चित्त में वासना नहीं करते उनको सफलता ही होती है, क्योंकि फुरने से रहित होना भी पुरुषार्थ है। यह भी नीति है कि अर्थ चिन्तवन करनेवाले को प्राप्ति नहीं होती और भयाचक को प्राप्ति होती है। हे रामजी! पुरुषार्थ सफल भी नहीं है जो आत्मबोध के निमित्त न हो। जब ब्रह्मसत्ता की ओर तीव्र अभ्यास होता है तब परमपद की अवश्य प्राप्ति होती है और जब परमपद पाया तब सब जगत् चिदाकाशरूप हो भासता है। नीति आदिक जो विस्तार कहे हैं सो सर्व भ्रमरूप हैं केवल ब्रह्मसत्ता ही ऐसे हो भासती है। जैसे पृथ्वी में रस सत्ता है और वह तृणवत् गुच्छे और फूलरूप होकर स्थित हैं तैसे ही नीति भादिक सब जगत् होकर ब्रह्म ही स्थित है, और कुछ वस्तु नहीं।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे दैवशब्दार्थविचारो
नाम पञ्चचत्वारिंशत्तमस्सर्गः॥४५॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जो कुछ तुमको भासता हे सो सर्व प्रकार, सर्वदा और सर्वओर से ब्रह्मतत्त्वही सर्वात्मा होकर स्थित हुमा है। वह अनन्त आत्मा है; जब उसमें चित्तशक्ति प्रकट होती है अर्थात् शुद्ध चेतन्यमात्र में अहंस्फूर्ति होती है तब जगत् भासता है; कहीं उपजता है; कहीं नष्ट होता है; कहीं हुलास करता है; कहीं चित्त भासता है; कहीं किञ्चन है; कहीं प्रकट है और कहीं अप्रकट भासता है। निदान नाना प्रकार का जगत है जहाँ जैसा तीव्र अभ्यास होता है वहाँ वैसा होकर भासता है। क्योंकि, आत्मा सर्व शक्ति और सर्वरूप है; जैसा जैसा फुरना उसमें दृढ़ होता है, वही रूप होकर भासता है। हे रामजी! ये जो नाना प्रकार की शक्तियाँ कही हैं सो वास्तव में आत्मा से कुब भिन्न नहीं बुद्धिमानों