पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२७५

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उत्पत्ति प्रकरण।

है तैसे ही संवेदन ने विस्तार पाया। प्रथम वह एक अण्डरूपी होकर स्थित हुआ और फिर उसने अण्ड को फोड़ा। जैसे गन्धर्वनगर और स्वप्न सृष्टि भासती है तेसे ही उसमें जगत् भासने लगा। फिर उसमें भिन्न-भिन्न देह और भिन्न-भिन्न नाम कल्पे। जैसे बालक मृत्तिका की सेना कल्पता है और उनका भिन्न-भिन्न नाम रखता है तैसे ही स्थावर जङ्गम आदिक नाम कल्पना की। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश इन पाँचों भूतों की सृष्टि संकल्प से उपजी है। हे रामजी! आदि ब्रह्म से जो जीव फुरा है उसका नाम ब्रह्मा है। वह ब्रह्मा आत्मा में आत्मरूप होकर स्थित है और उससे क्रम करके जगत् हुआ है। जैसे वह चेतता है तैसे ही होकर स्थित होता है। जैसे समुद्र में द्रवता से तरङ्ग होते हैं तैसे ही ब्रह्म में चित्त स्वभाव से जीव होता है। वह जीव जब प्रमाद से अनात्मभाव को धारण करता है तब कर्मों से बन्धवान होता है जैसे जल जब दृढ़ जड़ता को अंगीकार करता है तब बरफरूप होकर पत्थर के समान हो जाता है; तैसे जीव जब अनात्म में अभिमान करता है तब कर्मों के बन्धन में आता है। हे रामजी! कर्मों का बीज संकल्प है और संकल्प जीव से फुरता है। जीवत्वभाव तब होता है जब शुभचेतनामात्र स्वरूप से उत्थान होता है। उत्थान के अर्थ ये हैं कि जब प्रमाद होता है तब जीवत्वभाव होता है और जब जीवत्वभाव होता है तब अनेक संकल्प कल्पना फुरता है। उन संकल्प कल्पनामों से कर्म होते हैं; और कर्मों से जन्म, मरण आदिक नाना प्रकार के विकार होते हैं। जैसे बीज से अंकुर और पत्र होते हैं, फिर आगे फूल फल और टास होते जाते हैं तैसे ही संल्कप कर्मों से नाना प्रकार के विकार होते हैं। जैसे-जैसे कर्म जीव करता है उनके अनुसार जन्म, मरण और अधःऊर्ध्व को प्राप्त होता है। हे रामजी! मन के फुरने का नाम कर्म है; फुरने का ही नाम चित्त है; फुरने का ही नाम कर्म है और फुरने का ही नाम दैव है। उसही से जीव को शुभ अशुभ जगद प्राप्त होता है। सबका आदि कारण ब्रह्म है उसके प्रथम मन उत्पन्न हुआ फिर उस मन ही ने सम्पूर्ण जगत् की रचना की है। जैसे बीज से प्रथम अंकुर