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योगवाशिष्ठ।

होता है और फिर पत्र, फूल, और फल और टास होते हैं तैसे ही ब्रह्म से मन भौर जगत् उपजा है।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे बीजांकुरवर्णनन्नाम
सप्तचत्वरिंशत्तमस्सर्गः॥४७॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! आदि कारण ब्रह्म से मन उत्पन्न हुआ है। वह मन संकल्परूप है और मन से ही सम्पूर्ण जगत् हुआ है। वह मन आत्मा में मनत्वभाव से स्थित है और उस मन ने ही भाव अभावरूपी जगत् कल्पा है। जैसे गन्धर्व की इच्छा से गन्धर्वनगर होता है तैसे ही मन से जगत् होता है। हे रामजी! आत्मा में द्वैतभेद की कुछ कल्पना नहीं। इस मन से ही ऐसी संज्ञा हुई हैं। ब्रह्म, जीव, मन, माया, कर्म, जगत् और द्रष्टा आदि सब भेद मन से हुए हैं; आत्मा में कोई भेद नहीं। जैसे समुद्र में तरङ्ग उबलते और बड़े विस्तार धारण करते हैं तेसे ही चित्तरूपी समुद्र में संवेदन से जो नाना प्रकार जगत् विस्तार पाता है सो असत् रूपी है, क्योंकि स्थित नहीं रहता और सदा चलरूप है और जो अधिष्ठान स्वरूपभाव से देखिये तो सवरूप है। इससे दैत कुछ न हुआ। जैसे स्वप्न का जगत् सत् असत्रूप चित्त से भासता है तैसे ही सत् असत्रूप यह जगत् भासता है। वास्तव में कुछ उपजा नहीं, चित्त के भ्रम से भासता है जैसे इन्द्रजाली की बाजी में जो नाना प्रकार के वृक्ष और औषध भासते हैं सो भ्रममात्र हैं तैसे यह जगत् भ्रममात्र है। हे रामजी! यह जगत् दीर्घकाल का स्वप्ना है और मन के भ्रम से सत् होकर भासता है। जैसे बालक भ्रम से परवाही में भूत कल्पता है और भय पाता है तैसे ही यह पुरुष चित्त के संयोग से देत कल्प के भय पाता है। जैसे विचार करने से वैताल का भय नष्ट होता है तैसे ही आत्मज्ञान से भय आदिक विकार नष्ट हो जाते हैं। हे रामजी! आत्मा, अनादि, दिव्य स्वरूप और अंशांशीभाव से रहित, शुद्ध चैतन्यरूप है। जब वह चेतना संवित् चैत्योन्मुखत्व होता है तब चित्त अर्थात जो चेतनता का लक्षण है उससे जीवकल्पना होती है। उस जीव में जब अहंभाव होता है कि 'मैं हूँ' तब उससे चित्त फुरता है;