पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२७७

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उत्पत्ति प्रकरण।

चित्त से इन्द्रियाँ होती हैं; उन इन्द्रियों से देहभाव होता है और उस देहभ्रम से मलिन हुआ नरक, स्वर्ग, बन्ध, मोक्ष आदि की कल्पना होती है जैसे बीज से अंकुर, पत्र, फूल, फल और टास होते हैं तैसे ही अहंभाव से जगविस्तार होता है। हे रामजी! जैसे देह और कर्मों में कुछ भेद नहीं तैसे ही ब्रह्म और चित्त में कुछ भेद नहीं। जैसे चित्त और जीव में कुछ भेद नहीं तैसे ही चित्त और देह में कुछ भेद नहीं। जैसे देह और कमों में कुछ भेद नहीं तैसे ही जीव और ईश्वर में कुछ भेद नहीं और तैसे ही ईश्वर ओर आत्मा में कुछ भेद नहीं। हे रामजी। सर्व ब्रह्मस्वरूप है; द्वैत कुछ नहीं।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे जीवविचारो नामाष्टचत्वा
रिंशत्तमस्सर्गः॥४८॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! यह जो नानात्व भासता है सो वास्तव में एक ब्रह्मस्वरूप है, चैत्यता से एक का अनेक रूप हो भासता है। जैसे एक दीप से अनेक दीप होते हैं तैसे ही एक परब्रह्म से अनेक रूप हो भासते हैं। हे रामजी! यह असत् रूपी जगत् जिसमें आभास है उस आत्मतत्त्व का जब पदार्थ ज्ञान होता है तब चित्त में जो भहंभाव है सो नष्ट हो जाता है और उस अहंभाव के नष्ट हुए सब शोक नष्ट हो जाते हैं। हे रामजी! जीव चित्तरूपी है और चित्त में जगत् हुआ है। जब चित्त नष्ट हो तब जगभ्रम भी नष्ट हो जावेगा। जैसे अपने चरण में चर्म की जती पहनते हैं तो सर्व पृथ्वी चर्म से लपेटी प्रतीत होती है और ताप कण्टक नहीं लगते हैं तैसे ही जब चित्त में शान्ति होती है तब सर्व जगत् शान्तिरूप होता है। जैसे केले के थम्भ में पत्रों के सिवाय अन्य कुछ सार नहीं निकलता तैसे ही सब जगत् भ्रममात्र है और इससे सार कुछ नहीं निकलता है। हे रामजी! इतना भ्रम चित्त से होता है। वाल्यावस्था में कीड़ा करता फिरता है; यौवन अवस्था धारण करके विषयों को सेवता है और वृद्धावस्था में चिन्ता से जर्जरीमृत होता है फिर मृतक होकर कमों के अनुसार नरक स्वर्ग में चला जाता है। हे रामजी। यह सब मन का नृत्य है। मन ही भ्रमता है, जैसे नेत्रदूषण से आकाश में