पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२७९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२७३
उत्पत्ति प्रकरण।

जब निकट होकर देखे तब सर्पभ्रम मिट जाता है रस्सी ही भासती है; तेसे ही भात्मा का निवृत्तरूप जगत् है; जब बहिर्मुख होके देखता हे तब जगत् ही भासता है जब अन्तर्मुख होके देखता है तब जगत्भ्रम मिटकर आत्मा ही भासता है। हे रामजी! जिसमें अभिलाषा हो उसको त्याग दे। ऐसे निश्चय से मुक्ति प्राप्त होती है। त्याग का यत्न कुछ नहीं। महात्मा पुरुष प्राणों को तृण की नाई त्याग देते हैं और बड़े दुःख को सह लेते हैं। तुमको अभिलाषा त्यागने में क्या कठिनता है? हे रामजी! आत्मा के आगे अभिलाषा ही आवरण है। अभिलाषा के होते आत्मा नहीं भासता है। जैसे बादलों के आवरण से सूर्य नहीं भासता और जब बादलों का आवरण नष्ट होता है तब सूर्य भासता है; तैसे ही अभिलाषा के निवृत्त हुए आत्मा भासता है। इससे जो कुछ अभिलाषा उठे उसको त्यागो और निरभिलाषा होकर आत्मपद में स्थित हो। प्रकृत आचार देह और इन्द्रियों में ग्रहण करो और जो कुछ त्याग करना हो उसको त्याग करो, पर देह में ग्रहण और त्याग की बुद्धि न हो। हे रामजी! जो तुम सम्पूर्ण दृश्य की इच्छा त्यागोगे तो जैसे हाथ में बेलफल प्रत्यक्ष होता है और जैसे नेत्रों के आगे प्रतिबिम्ब प्रत्यक्ष भासता है तैसे ही अभिलाषा के त्याग से आत्मपद तुमको प्रत्यक्ष भासेगा और सब जगत् भी आत्मरूप ही भासेगा। जैसे महाप्रलय में सब जगत् जल में भासता है और कुछ दृष्टि ही नहीं आता तैसे ही आत्मपद से भिन्न तुमको कुछ न भासेगा। आत्मतत्त्व को न जानने का ही नाम बन्धन है और आत्मपद का जानना ही मोक्ष है और मोक्ष कोई नहीं।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे संश्रितउपशमयोगोना मैकोन
पञ्चाशत्तमस्सर्गः॥४९॥

रामजी ने पूछा, हे भगवन्! मन क्योंकर उत्पन्न हुआ है? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! ब्रह्म अनन्तशक्ति है और उसमें अनेक प्रकार का किंचन होता है। जहाँ जहाँ जैसी जैसी शक्ति फुरती है तहाँ तहाँ तैसा ही रूप होकर भासता है। जबशुद्ध चिन्मात्र सत्ता चेतन में फुरती है कि अहं अस्मि' तब उस फुरने से जीव कहाता है। वही चित्तशक्तिसंकल्प का कारण भासती