पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२८

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योगवाशिष्ठ।

देखकर कहते हैं कि ये "पशु है—आशाल्पी फाँसी से बचे हुए है"। हे राजन्! जो कुछ योग्य पदार्थ हैं उनको देखकर उनका चित्त प्रसन्न नहीं होता बल्कि देखकर क्रोधवान् होते हैं। जैसे पपीहा मारवाड़ में जावे तो मेघों की बुन्दों को नहीं देखता और खेदवान् होता है वैसे ही रामजी विषयों से खेदवान् होते हैं। इससे हम जानते हैं कि उनको परमपद पाने की इच्छा है परन्तु कदाचित् उनके मुख से यह नहीं सुना। त्याग का भी अभिमान उन्हें कदाचित् नहीं है क्योंकि कभी गाते हैं और बोलते हैं तो कहते हैं, "हाय मैं मनाथ मारा गया। भरे मूखों! तुम संसार समुद्र में क्यों डूबते हो? यह संसार अनर्थ का कारण है। इसमें सुख कदापि नहीं है इससे कूटने का उपाय करो"। वह किसी के साथ बोलते नहीं और न हँसते हैं; किसी भति चिन्ता में डूबे हैं। वह किसी पदार्थ से आश्चर्यवान भी नहीं होते। जो कोई कहे कि आकाश में बाग लगा है और उसमें फूल फूले हैं। उनको में ले आया; तो उसको सुनकर भी आश्चर्यवान नहीं होते, सब भ्रममात्र समझते हैं। उनको न किसी पदार्थ से हर्ष होता है, न किसी से शोक होता है; किसी बड़ी चिन्ता में मग्न हैं पर उस चिन्ता के निवारण करने की किसी में सामर्थ्य नहीं देखते। हे राजन्! हमको यह चिन्ता लग रही है कि रामजी को खाने पहिरने, बोलने और देखने की इच्छा नहीं रही। और न किसी कर्म की उनको इच्छा हे ऐसा न हो कि कहीं मृतक हो जावें? जो कोई कहता है कि तुम चक्रवर्ती राजा हो तुम्हारी बड़ी आयु हो और बड़ा सुख पावो तो उसके वचन सुनकर कठोर बोलते हैं। हे राजन्! केवल रामजी को ही ऐसी चिन्ता नहीं वरन् लक्ष्मण और शत्रुघ्न को भी ऐसे ही चिन्ता लग रही है। जो कोई उनकी चिन्ता दूर करनेवाला हो तो करे नहीं तो बड़ी चिन्ता में इने रहेंगे। राजन्! अब क्या कहते हो? तुम्हारे पुत्र सबसे विरक्त हो एक वस्त्र ओदे बैठे हैं। इससे अब तुम वही उपाय करो जिससे उनकी चिन्ता निवृत्त हो। इतना सुन विश्वामित्रजी बोले हे साधो! यदि रामजी ऐसे हैं तो हमारे पास लावो, हम उनका दुःख निवृत्त करेंगे। हे राजन्, दशरथ! तुम धन्य हो; जिनका पुत्र विवेक और वैराग्य को प्राप्त