पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२८३

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उत्पति प्रकरण।

जब संकल्प कलना होती है तब मनरूप होके स्थित होता है; स्मरण करके चित्त होता है, निश्चय करके बुद्धि होती है और अहंभाव करके अहंकार होता है। फिर काकताली की नाई चिद्अणु में तन्मात्रा फुर पाती हैं। जब शब्द सुनने की इच्छा हुई तब श्रवण इन्द्रिय प्रकट हुई; जब देखने की इच्छा हुई तव नेत्र इन्द्रिय प्रकट हुई; गन्ध लेने की इच्छा से नासिका इन्द्रिय प्रकट हुई; स्पर्श की इच्छा से त्वचा इन्द्रिय प्रकट हुई और रस लेने की इच्छा से रसना इन्द्रिय प्रकट हुई। इस प्रकार पाँचों इन्द्रियाँ प्रकट हुई हैं औरभावनासे सत् ही असत्कीनाई भासने लगीं। हे रामजी! इस प्रकार आदि जीव हुए हैं और उनकी भावना से अन्तवाहक शरीर हो पाये हैं। चलते भासते हैं पर अचलरूप हैं, इससे जो कुछ जगत् भासता है वह सब ब्रह्मस्वरूप है भिन्न कुछ नहीं। आमाता, प्रमाण और प्रमेय ब्रह्म है और संवेदन ब्रह्म से ही अनेकरूप नाना प्रकार के भासते हैं। जैसा जैसा संवेदन फुरता है तैसा तैसा रूप होकर भासता है। जब दृश्य को चेतता है तब नाना प्रकार का दृश्य भासता है और जब अन्तर्मुख ब्रह्म चेतता है तब ब्रह्मरूप होकर भासता है। हे रामजी! दृश्य कुछ उपजा नहीं, आत्मा सदा अपने आप में स्थित है। जब दृश्य भसंभव हुभा तब बन्धन और मोक्ष किसको कहिये और विचार किसका कीजिये? सर्वकल्पना का अभाव है। यह जो तुम्हारा प्रश्न है उसका उत्तर सिद्धान्तकाल में होगा यहाँ न बनेगा। जैसे कमल के फूलों की माला अपने काल में बनती है और विना समय शोभा नहीं देती तैसे ही तुम्हारा प्रश्न सिद्धान्तकाल में शोभा पावेगा; समय विना सार्थक शब्द भी निरर्थक होता है ्। हे रामजी! जो कुछ पदार्थ हैं उनका फल भी समय पाके होता है; समय विना नहीं होता इससे अब पूर्व प्रसंग सुनो ्। हे रामजी! ब्रह्म में चैत्यो न्मुखत्व से आदि जीव ने भापको पिता, माता जाना। जैसे स्वम में आपको कोई देखे तैसे ही ब्रह्माजी ने आपको जाना। उन ब्रह्मा ने प्रथम 'ॐ' शब्द उच्चारण किया; उस शब्द तन्मात्रा से चारों वेद देखे और उसके अनन्तर मनोराज से सृष्टि रची। तब मसतरूप सृष्टि भावना से सत्य होकर भासने लगी। जैसे स्वम में सर्प और गन्धर्वनगर भासते हैं