पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२८५

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उत्पति प्रकरण।

अपने आपमें स्थित है, परन्तु अज्ञान से शुद्ध भी अशुद्ध भासता है; सर्व जगत् भी परिच्छिन्न भासता है; ब्रह्म भी अब्रह्म भासता है; नित्य भी अनित्य भासता है और अद्वैत भी द्वैतसहित भासता है। हे रामजी! अज्ञान से ऐसा भासता है। जैसे जल और तरङ्ग में मूर्ख भेद मानते हैं परन्तु भेद नहीं; तैसे ही ब्रह्म और जगत में भेद भवानी देखते हैं। जैसे सुवर्ण में भूषण और रस्सी में सर्प मूर्ख देखते हैं; तैसे ही ब्रह्म में नानात्व मूर्ख देखते हैं; बानी को सब चिदाकाश हैं। हे रामजी! जब आत्मसत्ता में अनात्मरूप दृश्य की चैतन्यता होती है तब कल्पना उत्पन्न होती है और मनरूप होके स्थित होती है उसके अनन्तर अहंभाव होता है और फिर तन्मात्र की कल्पना होकर शब्द अर्थ की कल्पना होती है। इसी प्रकार चित्सत्ता में जैसी जैसी चैतन्यता फुरती है तैसा ही तैसा रूप भासने लगता है। सत् असत् पदार्थ वासना के वश फुर पाते हैं। जैसे स्वमसृष्टि फर पाती है सो अनुभवरूप ही होती है वैसे यह जगत् फुर भाया है सो अनुभवस्वरूप है। इससे सृष्टि में भी चिन्मात्र है और चिन्मात्र ही में सृष्टि है। सबको सत्तारूपी भीतर बाहर ऊर्ध्व अधः चिन्मात्र ही है। आमाता, प्रमाण और प्रमेय सबपदचिन्मात्रही में धारे हैं, नित्य उपशान्तरूप है, समसत् जगत् की सत्ता उसही से होती है सो एक ही सम है और तुरीया प्रतीतपद नितही स्थित है।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे सत्योपदेशो नाम
पञ्चाशत्तमस्सर्गः॥५०॥

वशिष्ठजी बोले हे रामजी! इस प्रसङ्ग पर एक पुरातन इतिहास है और उसमें महा प्रश्नों का समूह है सो सुनो। काजल के पर्वत की नाई कर्कटी नाम एक महाश्याम राक्षसी हिमालय पर्वत के शिखर पर हुई। विसूचिका भी उसका नाम था। अस्थिर बिजली की नाई उमके नेत्र और अग्नि की नाई बड़ी जिला चमत्कार करती थी और उसके बड़े नख और ऊँचा शरीर था जैसे बड़वाग्नि तृप्त नहीं होता तैसे ही वह भी भोजन से तृप्त न होती थी। उसके मन में विचार उपजा कि जम्बूद्वीप के सम्पूर्ण जीवों को भोजन करूँ तो तृप्त होऊँ अन्यथा मेरी तृप्ति नहीं