पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२८६

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योगवाशिष्ठ।

होती। आपदा उद्यम किये से दूर होती है, इससे मैं अखण्डचित्त होकर तप करूँ। हे रामजी! ऐसा विचारकर वह एकान्त हिमालय पर्वत की कन्दरा में एक टाँग से स्थिर हुई और दोनों भुजाओं को उठाके नेत्र आकाश की ओर किये मानों मेघ को पकड़ती है। शरीर और प्राणों को स्थिर करके मूर्ति की नाई हो गई शीत और उष्ण के क्षोभ से रहित हुई और पवन से शरीर जर्जरीभूत हुआ। जब इस प्रकार सहस्रवर्ष दारुण तप किया तब ब्रह्माजी आये और राक्षसी ने उन्हें देखके मद से नमस्कार किया और मन में विचारा कि मेरे वर देने के निमित्त यह पाये हैं तब ब्रह्माजी ने कहा, हे पुत्री! तूने बड़ा तप किया अब उठ खड़ी हो और जो कुछ चाहती है वह वर माँग। कर्कटी बोली, हे भगवन्! में लोहे की नाई वज्रसूचिका होऊँ जिससे जीवों के हृदय में प्रवेश कर जाऊँ। हे रामजी! जब ऐमे उस मूर्ख राक्षसी ने वर माँगा तब ब्रह्माजी ने कहा ऐसे ही हो तेरा नाम भी प्रसिद्ध विसूचिका होगा। हे राक्षसी! जो दुराचारी जीव होंगे उनके हृदय में तू पाणवायु के मार्ग से प्रवेश करेगी और जो गुणवान तेरे निवृत्त करने के निमित्त 'ॐ' मन्त्र पढ़ेंगे और यह पढ़ेंगे कि हिमालय के उत्तर शिखर में कर्कटी नाम राक्षसी विसूचिका है सो दूर हो और विसूचिका का दुःखी चन्द्रमा के मण्डल में चितवे कि अमृत के कुण्ड में बैठा है और राक्षसी हिमालय के शिखर को गई तब तू उनको त्याग जाना। उनमेंतूप्रवेश न कर सकेगी। हे रामजी! इस प्रकार कहके ब्रह्माजी आकाश को उड़े और इन्द्र और सिद्धों के मार्ग से गये और वही मन्त्र उनको भी सुनाया। जब उन्होंने उस मन्त्र को प्रसिद्ध किया तब कर्कटी का शरीर सूक्ष्म होने लगा। जैसे संकल्प का पहाड़ संकल्प के क्षीण होने से क्षीण हो जाता है तैसे ही क्रम से प्रथम जो उसका मेघवत् प्राकार था सो घटकर वृक्षवत् हो गया। फिर वह पुरुषरूप हो गई; फिर हस्तमात्र; फिर प्रदेशमात्र और फिर लोहे की सुई की नाई सूक्ष्म हो गई। हे रामजी! ऐसे रूप को कर्कटी ने धारा जिसको देख मूर्ख अविचारी पुरुष तृण की नाई शरीर को त्यागते हैं। जो पुरुष परस्पर की विचारते हैं सो पीछे से कष्ट नहीं पाते और जो पूर्वापर विचार