पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२८९

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उत्पत्ति प्रकरण।

विचार किया कि उद्यम से सब कुछ प्राप्त होता है इससे पूर्व शरीर के निमित्त फिर एकान्त स्थान में जाकर तप करूँ। इतने में एक गीध पक्षी वहाँ आकर कुछ भोजन करने लगा कि उसके चोंच के मार्ग से विसूचिका भीतर चली गई। जब यह पक्षी कष्ट पाके उड़ा तो वह विसूचिका उसकी पुर्यष्टक से मिलके और उसको प्रेरके हिमालय पर्वत की ओर इस भाँति ले चली जैसे वायु मेघ को ले जाता है। उस गीध ने वहाँ पहुँचकर वमन करके विसूचिका को त्याग दिया और पाप सुखी होकर उड़ गया। तब उसी शरीर से विसूचिका वहाँ तप करने लगी। हे रामजी! इस प्रकार इन्द्र ने सुनकर उसके देखने के निमित्त पवन चलाया। तब पवन आकाश छोड़के भूतल में उतरा और लोकालोक पर्वत स्वर्ण की पृथ्वी, समुद्रों और दीपों को लाँघके क्रम से हिमालय के वन में सूक्ष्म शरीर से भाया और क्या देखा कि पवन चल रहा है और सूर्य तप रहे हैं परन्तु वह चलायमान नहीं होती और प्राणवायु का भी भोजन नहीं करती तब पवन ने भी आश्चर्यमान होके कहा, हे तपश्विनी! तू किसलिए तप करती है? पर विसूचिका तब भी न बोली। पवन ने फिर कहा, भगवती विसूचिका ने बड़ा तप किया हैभर इसको कोई कामना नहीं रही ऐसे पवन उड़ा और क्रम से इन्द्र के पास गया। इन्द्र विसूचिका के दर्शन के आहात्म्य से पवन को कण्ठ लगाय मिले और बड़ा भादर किया कि तू बड़े पुण्यवान का दर्शन करके आया है। पवन ने भी सब वृत्तान्त कह सुनाया और कहा, हे राजन्! उसके तप के तेज से हिमालय की शीतलता दव गई है। आप ब्रह्माजी के पास चलिये, नहीं तो उसके तप से सब जगत् जलेगा। तब इन्द्र पवन और देवतागणों सहित ब्रह्माजी के पास आये और प्रणाम करके बैठे। ब्रह्माजी ने कहा, तुम्हारी जो अभिलाषा है वह मैंने जानी। इस प्रकार इन्द्र से कहकर ब्रह्माजी विसूचिका के पास जिसका नाम सूची था आये और उसको देखके आश्चर्यमान हुए कि तृण की नाई विसूचिका ने सुमेरु से भी अधिक धैर्य धारण किया है जैसे मध्याह का सूर्य तेजवान होता है तेसे ही इसका तप से तेज हुआ है