पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२९०

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योगवाशिष्ठ।

और परब्रह्म में स्थित हुई है। अब इसका जगतभ्रम शान्त हो गया है इस से वन्दना करने योग्य है। हे रामजी! फिर आकाश में स्थित होकर ब्रह्माजी ने कहा,हे पुत्री! तू अब वर ले, तब विसूचिका विचारकर कहने। लगी कि जो कुछ जानने योग्य था सो मैंने जाना और शान्तरूप हुई हूँ, सम्पूर्ण संशय मेरे नष्ट हुए अब वर से मुझे क्या प्रयोजन है? यह जगत् अपने संकल्प से उपजा है। जैसे बालक को अपनी परछाही में बेताल बुद्धि होती है और उससे भय पाता है तैसे ही मैं स्वरूप के प्रमाद से भटकती फिरी। अब इष्ट अनिष्ट जगत् की मुझको कुछ इच्छा नहीं। अब मैं निर्विकार शान्ति में स्थित हूँ। हे रामजी! ऐसे कहकर जब सूची तूष्णीम हो रही तब वीतराग और प्रसन्नबुद्धि ब्रह्माजी उसके भाव को देखके कहने लगे, हे कर्कटी! तू कुछ वर ले, क्योंकि कुछ काल तुझे भूतल में विचरना है। भोगों को भोगके तू विदेहमुक्त होगी। अब तू जीवन्मुक्त होकर विचरेगी। नीति के निश्चय को कोई नहीं लाँघ सकता। जब तू तप करने लगी थी तब पूर्व देह के पाने का संकल्प किया था। मेरा वह संकल्प अब सफल हुआ है। जैसे बीज में वृक्ष का सद्भाव होता है सो काल पाकर होता है तैसे ही तेरे में पूर्व शरीर का जो संकल्प था सो भव प्राप्त होवेगा अर्थात् वैसा ही शरीर पाकेतू हिमालय के वन में विचरेगी। हे पुत्री! तुझे तो अनिच्छित योग हुभा है। जैसे कोई छाया के निमित्त आम के वृक्ष के निकट आन बैठे और उसे काया और फल दोनों प्राप्त हों तैसे ही तूने शरीर की वृद्धि के लिये यन किया था वह तुझे तृप्ति करनेवाला हुभा है और ब्रह्मतत्त्व भी प्राप्त हुआ। हे पुत्री! राक्षसी शरीर में जीवन्मुक्त होके तू विचरेगी और दूसरा जन्म तुझको न होगा। इस जन्म में तू परम शान्त रहेगी और शरत्काल के आकाश की नाई निर्मल होगी। जब तेरी वृत्ति बहिर्मुख फुरेगी तब सब जगत् तुझको आत्मरूप भासेगा; व्यवहार में समाधि रहेगी और समाधि में भी समाधि रहेगी। पापी जीवों को तू भोजन करेगी; न्यायवान्धव तेरा नाम होगा और विवेकपालक तेरी देह होगी। इससे पूर्व के शरीर को अंगीकार कर। इतना कह फिर वशिष्ठजी बोले, हे