पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२९२

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योगवाशिष्ठ।

रात्रि में श्याम राक्षसी और श्याम ही तमाल वृक्ष भी महामन्धकार भासते बे—मानों कज्जल का मेघ स्थित है। ऐसी श्यामता में किराती देश के राजा मन्त्री भोर वीरों सहित यात्रा को निकले तो उनको आते देख राक्षसी ने विचारा कि मुझे भोजन मिला। यह मूढ़ अज्ञानी है और इनको देहाभिमान है; इन मूखों के जीने से न यह लोक न परलोक कुछ अर्थ सिद्ध नहीं होता। ऐसे जीवों का जीना दुःख के निमित्त है इसलिये इनको यत्न करके भी मारना योग्य है और इनका पालना अनर्थ के निमित्त है, क्योंकि यह पाप को उदय करते हैं। ब्रह्मा की प्रानि नीति है कि पापी मारने योग्य हैं और गुणवान मारने योग्य नहीं। कदाचित्त ये गुणवान हों तो मैं इन्हें न मागी। गुणवान भी दो प्रकार के होते हैं। जो अज्ञानी, अदम्भी, अहिंसक, शान्तिमान और पुण्यकर्म करनेवाले हैं वे भी गुणवान हैं पर महागुणवान तो ब्रह्मवेत्ता हैं जिनके जीने से बहुतों के कार्य सिद्ध होते हैं, इसलिये जो मेरा शरीर भोजन बिना नष्ट भी हो जावे तो भी मैं गुणवान को न मारूँगी।जो उदार पुरुष है वह पृथ्वी का चन्द्रमा है; उसकी संवित् से स्वर्ग और मोक्ष होता है। जैसे संजीवनी बूटी से मृतक भी जीता है तैसे ही सन्तों के संग से अमृत होता है। इससे मैं प्रश्न करके इनकी परीक्षा लूँ; कदाचित् यह भी गुणवान हों। यह कमलनयन बानवान भासते हैं; यदि यथार्थ ज्ञानवान पुरुष हैं तो पूजने योग्य हैं और जो मूर्ख हैं तो दण्ड देने योग्य हैं और मैं उनको अवश्य भोजन कलूंगी।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे राक्षसीविचारो नाम
त्रिपञ्चाशत्तमस्सर्गः॥५३॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! तब वह राक्षसी उनको देखके मेघ की कौन हो? बुद्धिमान हो अथवा दुर्बुद्धि हो? कहाँ से आये हो और तुम्हारा क्या आचार है? तुम तो मुझको पास की नाई आन प्राप्त हुए हो इससे अब मैं तुमको भोजन करूंगी। राजा बोले: भरी। इस भौतिक