पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२९४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२८८
योगवाशिष्ठ।

तुम कौन हो और तुम्हारा आचार क्या है? निष्पाप महापुरुषों को देखके मित्रभाव उपज आता है। मन्त्री बोला, किरातदेश का यह राजा है और मैं इनका मन्त्री हूँ। रात्रि में तुमसे दुष्टों के मारने के निमित्त उठे हैं। रात्रि दिन में हमारा यही आचार है कि जो जीव धर्म की मर्यादा त्यागनेवाले हैं उनका हम नाश करते हैं। जैसे अग्नि इंधन का नाश करता है। राक्षसी बोली, हे राजन्! यह तेरा दुष्ट मन्त्री है। जिस राजा का मन्त्री भला नहीं होता वह राजा भी भला नहीं होता और जिस राजा का मन्त्री भला होता है उसकी प्रजा भी शान्तिमान होती है। भला मन्त्री वह कहाता है जो राजा को न्याय और विवेक में लगावे। जो राजा विवेकी होता है वह आन्तात्मा होता है और जो राजा शान्तिमान हुआ तब प्रजा भी शान्तिमान होती है। सब गुणों से जो उत्तम गुण है वह आत्मज्ञान है। जो आत्मा को जानता है वही राजा और जिसमें प्रभुता और समदृष्टि हो वही मन्त्री है, जो प्रभुता और समदृष्टि से रहित है वह न राजा है न मन्त्री है। हे राजन्! जो तुम आत्मज्ञानवान पुरुष हो तो तुम कल्याणरूप हो। जो ज्ञान से रहित होता है उसको मैं भोजन करता हूँ। तुम्हारे छूटने का उपाय यही है कि जो मैं प्रश्नों का समूह पूछती हूँ उसका उत्तर दो। जो तुमने प्रश्नों का उत्तर दिया तो मेरे पूजने योग्य हो और जो मेरा अर्थ होगा सो कहूँगी तुम पूर्ण करना और जो तुमने प्रश्नों का उत्तर न दिया तो तुम्हारा भोजन करूँगी।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे राक्षसीविचारो नाम
चतुःपञ्चाशत्तमस्सर्गः॥५४॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जब इस प्रकार राक्षसी ने कहा तब राजा बोला, तू प्रश्न कर, हम तुमको उत्तर देंगे। राक्षसी बोली, हे राजन्! वह एक कौन अणु है जिससे अनेक प्रकार हुए हैं और एक के अनेक नाम हैं और वह कौन अणु है जिसमें अनेक ब्रह्माण्ड होते हैं और लीन हो जाते हैं? जैसे समुद्र में अनेक बुबुदे उपजकर लीन होते हैं। वह कौन आकाश है जो पोल से रहित है और कौन अणु है जो न किञ्चित