पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२९६

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योगवाशिष्ठ।

भव स्थित है और वह कौन अणु है जो अत्यन्त निस्स्वाद है और आप ही सब स्वाद होता है? वह कौन अणु है जिसको अपने ढाँपने की सामर्थ्य नहीं भौर सबको ढाँप रहा है और वह कौन अणु है जिससे सब जीते हैं? वह कौन अणु है जिसका अवयव कोई नहीं और सब अवयव को धारण कर रहा है? वह कौन निमेष है जिसमें बहुतेरे कल्प स्थित हैं? वह कौन अणु है जिसमें अनन्त जगत् स्थित है जेसे बीज में वृक्ष होता है? वह कौन भणु है जिसमें बीज से आदि फल पर्यन्त अनउदय हुए भी भासते हैं? वह कौन है जो प्रयोजन और कर्तृत्व से रहित है और प्रयोजनवान और कर्तृवान की नाई स्थित है? वह कौन द्रष्टा है जो दृश्य से मिलकर दृश्य होता है और वह कौन है जो दृश्य के नष्ट हुए भी भापको अखण्ड देखता है? वह कौन है जिसके जाने से द्रष्टा दर्शन-दृश्य तीनों लय हो जाते हैं, जैसे सोने के जाने से भूषणभाव लीन हो जाते हैं और वह कौन है जिससे भिन्न कुछ नहीं काल, वस्तु के परिच्छेद से रहित सत् असत् की नाई स्थित है और वह कौन प्रदत है जिससे देत भी भिन्न नहीं—जैसे समुद्र से तरङ्ग भिन्न नहीं? वह कौन है जिसके देखे सत्ता असत्ता सब लीन होती है और वह कोन है जिसमें भ्रमरूपी अनन्त जगत् स्थित है- जैसे बीज में वृक्ष होता है? वह कौन है जो सबके भीतर है—जैसे वृक्ष में बीज होते हैं और वह कौन है जो सत्ता असत्तारूपी आप ही हुआ है—जैसे वीज वृक्षरूप है और वृक्ष बीजरूप है? वह अणु कौन है जिसमें तांत भी सुमेरु की नाई स्थूल है और जिसके भीतर कोटि ब्रह्माण्ड हैं? हे राजन्! उस अणु को देखा हो तो कहो। यही मुझको संशय है इसको तुम अपने मुख से दूर करो। जिससे संशय निवृत्त न हो उसको पण्डित न कहना चाहिए। जो ज्ञानवान हैं उनको इन प्रश्नों का उत्तर कहना सुगम है। इन संशयों को वह शीघ्र ही निवृत्त कर देते हैं। जो भवानी हैं उनको उत्तर देना कठिन है। हे राजन्! जो तुमने मेरे प्रश्नों का उत्तर दिया तो तुम मेरे पूजने योग्य हो और जो मूर्खता से प्रश्नों का