पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२९७

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उत्पत्ति प्रकरण।

उत्तर न दोगे और प्रश्नों के विपर्यय जानोगे तो तुम दोनों को भोजन कर जाऊँगी और फिर तुम्हारी सब मजा को पास कर लूँगी, क्योंकि मूर्ख पापियों का मारना श्रेष्ठ है कि आगे को पाप करने से छूटेंगे। इतना कहकर वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! इस प्रकार राक्षसी कहकर और शुद्ध आशय को लेकर तूष्णीम हुई और जैसे शरत्काल में मेघमण्डल निर्मल होता है तैसे निर्मल हुई।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे राक्षसीप्रश्नवर्णनन्नाम
पञ्चपञ्चाशत्तमस्सर्गः॥५५॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! अर्धरात्रि के समय महाशून्य वन में जब उस राक्षसी ने महाप्रश्न किये तब महामन्त्री ने उससे कहा, हे राक्षसी! ये जो तुमने संशयप्रश्न किये हैं उनका मैं क्रम से उत्तर देता हूँ। जैसे उन्मत्त हाथी को केसरी सिंह नष्ट करता है तैसे मैं तेरे संशयों को निवृत्त करता हूँ। तूने सब प्रश्न परमात्मा ही के विषय किये हैं इससे तेरे सब प्रश्नों का एक ही प्रश्न है, परन्तु तूने अनेक प्रकार से किये हैं सो ब्रह्मवेत्ता के योग्य हैं। हे राक्षसी! जो अनामाख्य है अर्थात् सर्व इन्द्रियों का विषय नहीं और अगम है और मन की चिन्तना से रहित है ऐसी सत्ता चिन्मात्र है और उसका आकार भी सूक्ष्म है इस कारण सूक्ष्म कहाता है। सूक्ष्मता से ही उसकी अणु संवा है। उस अणु में सत् असत् की नाई जगत् स्थित है और उसही चिद् अणु में जब कुछ संवेदन फुरता है वही संवेदन सत्य असत्य जगत् की नाई भासता है इससे उसे चित्त कहते हैं। सृष्टि से पूर्व उसमें कुछ न था इससे निष्किञ्चन कहाता है। और इन्द्रियों का विषय नहीं इससे न किञ्चित है। उसी चिद्मणु में सब का आत्मा है इससे वह अनन्त भोक्ता पुरुष किञ्चन है और उससे कुछ भिन्न नहीं, इससे किञ्चन नहीं। वही चिद्अणु सबका आत्मा है और एक ही आभास से अनेकरूप भासता है—जैसे सुवर्ण से नाना प्रकार के भूषण भासते हैं। वही चिद्अणु परमाकाशरूप है जो आकाश से भी सक्षम और मन वाणी से प्रतीत है। सर्वात्मा है; शून्य कैसे हो? सत् को जो शून्य कहते हैं वह उन्मत्त हैं, क्योंकि प्रसत् भी सत् विना सिद्ध नहीं