जलाने से रहित है। ज्ञान अग्नि से प्रकाशमान है; अग्नि भी उससे उपजी है और सर्वगता वही है। द्रव्यों को पचाता भी वही है; प्रलय में सब भूत उसमें ही लीन होते हैं और पुष्कल मेघ इकट्ठा हों तो भी उसको प्रावरण नहीं कर सकते। वह सदा प्रकाश और ज्ञानरूप है; आकाश से भी निर्मल है और अग्नि भी उससे उत्पन्न होती है। सबको सत्ता देनेवाला वही है और सूर्यादिक भी उसके प्रकाश से प्रकाशते हैं वह अनुभवरूप है और नेत्रों बिना भासता है। ऐसा हृदयरूपी मन्दिर का दीपक आत्मा अनन्त और परम आकाशरूप है और मन और इन्द्रियों का विषय नहीं। वह लता फल, फल मादिक सबको प्रात्मतत्व से प्रकाशता है सबका अनुभवकर्ता वही है और काल, आकाश; क्रिया आदिक पदार्थों को सत्ता देनेवाला भी वही चिद्अणु है। सबका स्वामी कर्ता वही है, सबका पिता भोक्ता भी वही है; और सदा अकर्ता प्रभाकारूप है। जैसे स्वम में कर्ता भोक्ता भासता है पर अकर्ता अभोक्ता है; उससे भिन्न नहीं; इस कारण किचनरूप है और जगत् को धारण करनेवाला है। स्वरूप से मातृ, मान, मेय जिससे प्रकाशते हैं और कुछ उपजा नहीं। चिदात्मा का किञ्चन है; किञ्चन से जगत् की नाई भासता है। तूने जो पूछा था कि दूर ओर निकट कौन है सो अलखभाव से दूर भी वही है और चिद्रूपभाव से निकट भी वही है अथवा ज्ञान से निकट है और भज्ञान से दूर से दूर है। अज्ञान से तपरूप है और जान से प्रकाशरूप भी वही है और उसही चिद्मणु में संवेदन से सुमेरु आदिक स्थित हैं। हे राक्षसी! जो कुछ जगत् भासता है वह सब संवेदनरूप है। सुमेरु भादिक पदार्थ कुछ उपजे नहीं, चिसत्ता ज्यों की त्यों स्थित है; उसमें जैसा संवेदन फुरता है तैसा प्राकार हो भासता है। जहाँ निमेष का संवेदन फुरता है वहाँ निमेष कहाता है और जहाँ कल्प का संवेदन फुरता है वहाँ उसे कल्प कहते हैं। कल्प, क्रिया प्रादिक जगतविलास सब निमेष में फर आये हैं। जैसे मन के फुरने से बहुत योजनों पर्यन्त पुरुष देख पाता है और जैसे छोटे शीशे में बड़े विस्तार नगर का प्रति. विम्ब समाजाता है तैसे ही एक निमेष के फुरने में सब जगत् फुर माता