पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३००

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योगवाशिष्ठ।

है। एक निमेष में कल्प, समुद्र, पुर इत्यादिक अनन्त योजनों का विस्तार चिद्अणु में स्थित है और एक दो के भ्रम से रहित है। हे राक्षसी! इस जगत् का स्वरूप कुछ नहीं, संवेदन से भासता है; जैसा जैसा संवेदन में दृढ़ प्रतीत होता है तैसा ही तैसा अनुभव होता है। देख, क्षण के स्वप्न में सत् असत् जगत् फुर आता है और बहुत काल का अनुभव होता है। जो दुःखी होते हैं उनको थोड़े काल में बहुत काल भासता और सुखी जनों को बहुत काल में थोड़ा काल भासता है। जैसे हरिचन्द्र को एक रात्रि में दादश वर्ष का अनुभव हुआ था। इससे जितना जितना संवेदन दृढ़ होता है उतने देश काल हो भासते हैं और सत् भी असत् की नाई भासता है जैसे सुवर्ण में भूषणबुद्धि होती है तो भूषण भासते हैं और समुद्र में तरङ्गों की दृढ़ता से तरङ्ग भिन्न भासते हैं; तैसे ही निमेष में कल्प भासते हैं पर वास्तव में न निमेष है; न कल्प है; न दूर है न निकट है; चिद्मणु भात्मा का सब प्राभास है। हे राक्षसी! प्रकाश और तम; दूर और निकट सब चैतन सम्पुट में रत्नों की नाई है भोर वास्तव में अनन्यरूप है; भेदाभेद कुछ नहीं। हे राक्षसी! जब तक दृश्य का सद्भाव दृढ़ होता है तब तक द्रष्टा नहीं भासता-जैसे जव तक भूषणबुद्धि होती है तब तक स्वर्ण नहीं भामता और जब स्वर्ण जाना गया तव भूषणबुद्धि नहीं रहती स्वर्ण ही भासता है; तैसे ही जब तक दृश्य का स्पन्दभाव होता है तब तक द्रष्टा नहीं भासता और जब आत्मज्ञान होता है तब केवल ब्रह्मसत्ता ही निर्मल हो सद्रूप से सर्वत्र भासती है। दुर्लक्षता अर्थात् मन और इन्द्रियों के भविषय से असवरूप कहते हैं, चैत्यता से उसको चैतन कहते हैं और चैत्य के प्रभाव से अचेतनरूप कहते हैं अर्थात् चैत्य के प्रभाव से अचैत्य चिन्मात्र कहते हैं। चैतन चमत्कार से जगत् की नाई हो भासता है। हे राक्षसी! और जगत् उससे कोई नहीं-जैसे वायु का गोला वृक्षाकार हो भासता है और सघनधूप से मृगतृष्णा की नदी भासती है तैसे ही एक अदेत चैतन धन चैतन्यता से जगत् की नाई हो भासता है। जैसे सघन शन्यता से भाकाश में नीलता भासती है तेसे ही दृढ़ सघन चैतनता से जगत्