पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३०१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२९५
उत्पत्ति प्रकरण।

भासता है। जैसे सूर्य की सूक्ष्म किरणों का किंचन मृगतृष्णा का जल होता है, उस नदी का प्रमाण कुछ नहीं तैसे ही इस जगत् की आस्था भासती है पर सब आकाशरूप है। जैसे भ्रम से धूलि के कण में स्वर्ण की नाई चमत्कार होता है तैसे ही जगत्कल्पना चित्त के फुरने से भासती है। जैसे स्वप्नपुर और गन्धर्वनगर भाकार सहित भासते हैं सोन सद हैं न असत् हैं तैसे ही यह जगत् दीर्घ स्वप्न है, तो न सत् है और न असत् है। हे राक्षसी! जब आत्मा में अभ्यास हो तब यह कुण्डादिक ऐसे ही रहें और आकाशरूप हो भासें। कुण्डादिक भी काशरूप हैं; आकाश और कुण्डादिकों में भेद कुछ नहीं मूढ़ता से भेद भासता है। ज्ञानी को सब चिदाकाशरूप भासता है। हे राक्षसी! ब्रह्मा से तृणपर्यन्त के संवेदन में जैसी कल्पना दृढ़ हो रही हे तैसे ही भासती है और वास्तव में वही चिदाकाश प्रकाशता है। घन चेतनता से वही चिदाकाश आकारों की नाई प्रकाशता है और उसी का यह प्रकाश है। जैसे बीज और वृक्ष अनन्यरूप हैं तैसे ही असंख्यरूप जगत् जो ब्रह्मसत्ता में स्थित है वह अनन्यरूप है। जैसे बीज में वृक्ष का भाव स्थित है सो भाकाशरूप है तैसे ही ब्रह्म में जगत् स्थित है सो प्रक्षोभरूप है-अन्यभाव को नहीं प्राप्त हुए। ब्रह्मसत्ता सब ओर से शान्तरूप, भज, एक, और आदि-मध्य अन्त से रहित है। उसमें एक और दैत की कल्पना नहीं। वह अनउदय ही उदय हुआ है और निर्मल स्वप्रकाश मात्मा है।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे राक्षसीप्रश्नभेदो नाम
षट्पञ्चाशत्तमस्सर्गः॥५६॥

वशिष्ठजी बोले, बड़ा आश्चर्य है कि मन्त्री ने तो यह परमपावन परमार्थ वचन कहे और कमलनयन राजा ने भी कहा, हे राक्षसी! यह जो जाग्रत् जगत् की प्रतीति होती है इसका जब प्रभाव हो तब आत्माप्रतीति होती है। जब सब संकल्प की चेत्यता का नाश हो तब भात्मा का साक्षात्कार हो। उस आत्मसत्ता में संवेदन फुरने से जगत् भासता है और संवेदन के संकोच से सृष्टि का प्रलय होता है। सबका अधिष्ठानरूप वही आत्मसत्ता है तिसको वेदान्तवाक्य जतावने के अर्थ कुछ कहते