पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३०२

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योगवाशिष्ठ।

हैं क्योंकि वाणी से अतीतपद है। हे राक्षसी! यह जो द्रष्टा, दर्शन ओर दृश्य है इसके अन्तर जो अनुभवसत्ता है सो परमात्मा है। वह परमात्मा ही द्रष्टा, दर्शन, दृश्यरूप होकर भासता है। उसी में यह सब जगत्लीला है; नानात्वभाव से भी वह कुछ खण्डितभाव को नहीं प्राप्त हुमा अखण्ड ही है। उसी तन्मात्रसत्ता को ब्रह्म कहते हैं। हे भद्रे वही चिद्अणु संवेदन से वायुरूप हुआ है और वायु उसमें अत्यन्त भ्रान्तिमात्र है, क्योंकि केवल शुद्ध चिन्मात्र है। जब उसमें शब्द का संवेदन फरता है तब शब्दरूप हो भासता है और शब्दरूप उसमें भ्रान्तिमात्र है। उसमें शब्द ओर शब्द का अर्थ देखना दूर से दूर है, क्योंकि केवल विन्मात्र है। उसमें अहं त्वं कुछ नहीं। वह निष्किञ्चन है ऐसे रूप होकर भासता है, क्योंकि शक्तिरूप है। उसमें जैसी प्रतिभा फुरती है तेसा ही होकर भासता है इससे फुरना ही इस जगत् का कारण है। जो अनेक यत्नों से मिलता है सो भी आत्मसत्ता है। जब उसको कोई आता है तब उसने कुछ नहीं पाया और सब कुछ आया है। आया तो इस कारण नहीं कि भागे भी अपना आप था और सब कुछ इस कारण आया कि आत्मा को पाने से कुछ और पाना नहीं रहता। हे राक्षसी। अज्ञानरूपी वसन्तऋतु में जन्मों की परम्परा बेलि तब तक बढ़ती जाती है जब तक इसका काटनेवाला बोधरूपी खड्ग नहीं प्राप्त हुआ। जब बोधरूपी खड्ग प्राप्त होता है तब जन्मरूपी बलि को काटता है। हे राक्षसी चिद्अणु संवेदन द्वारा आपको दृश्य में प्रीति करता है—जैसे किरणों का चमत्कार जलरूप होकर स्थित होता है—सो शुद्ध ही आपको संवेदन द्वारा फुरता देखता है। चिद्मणु द्वारा जो जगत् हुआ है सो मेरु से आदि लेकर तीनों भुवनों में किरणों की नाई स्थित होता है ओर वास्तव में सब मायामात्र हैं, भ्रम से भासते हैं। जैसे स्वप्न में रागी को स्वप्न-स्त्री का प्रालिङ्गन होता है तैसे ही यह जगत् मन के फुरने से भासता है सो भ्रममात्र है। हे राक्षसी! सर्वशक्तिरूप आत्मा में जैसे सृष्टि का प्रादि फुरना हुआ है तैसा ही रूप होकर भासने लगा है। और जैसे संकल्प किया है तैसे ही स्थित हुआ है। इससे सब जगत्