पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३०३

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उत्पत्ति प्रकरण।

संकल्पमात्र है। जैसे जिसमें बालक का मन लगता है तैसा ही रूप उसका हो भासता है; तेसे ही संवित् के आश्रय जैसा संवेदन फुरता है तैसा ही रूप हो भासता है। हे राक्षसी! चिद्अणु परमाणु से भी सूक्ष्म है और उसने ही सब जगत् को पूर्ण किया है और सब जगत् अनन्तरूप आत्मा है उसमें संवेदन से जगत् की रचना हुई है। जैसे नटनायक जैसे जैसे बालक को नेत्रों से जताता है तैसे ही तैसे वह नृत्य करता है और जब वह ठहरजाता तब यह भी ठहरजाता है; तैसे ही चित्त के अवलोकन से सुमेरु से तृण पर्यन्त जगत् नृत्य करता है। जैसे चित्त संवेदन अनन्त शक्ति आत्मा में फुरता है तैसे ही तैसे हो भासता है। हे राक्षसी। देश, काल और वस्तु के परिच्छेद से आत्मसत्ता रहित है, इस कारण सुमेरु आदिक से भी स्थूल है; उसके सामने सुमेरु मादिक तृण के समान हैं और बाल के अप्र के सहस्रों भाग से भी सूक्ष्म है। अल्पता से ऐसा सूक्ष्म नहीं जिसमें सरसों का दाना भी सुमेरुवत् स्थूल है। माया की कला बहुत सूक्ष्म है उससे भी चिद्अणु सूक्ष्म है, क्योंकि निर्मायिकपद परमात्मा है। जैसे सुवर्ण और भूषण की शोभा समान नहीं अर्थात् स्वर्ण में भूषण कल्पित है समान कैसे हो; तैसे ही माया परमात्मा के समान नहीं क्योंकि कल्पित है। हे राक्षसी। जैसे सूर्य भादिक सन अनुभव से प्रकाशते हैं इनका सद्भाव कुछ न था उस सत्ता से ही इनका प्रकट होना हुआ है और फिर जर्जरीभूत होते हैं। शुद्ध चिन्मात्र सत्ता प्रकाशरूप है और वह सदा अपने भापमें स्थित है उस चिद्अणु के भीतर बाहर प्रकाश है और यह जो सूर्य, चन्द्रमा, अग्नि मादिक प्रकाश हैं सो तम से मिले हुए हैं अर्थात् भेदरूप हैं। ये भी तमरूप हैं, क्योंकि प्रकाश की अपेक्षा रखते हैं। इसमें इतना भेद है कि प्रकाश शुक्लरूप है और तम कृष्णरूप है इससे रङ्ग का भेद है आकाशरूप कोई नहीं। जैसे मेघ का कुहिरा श्याम होता है और बरफ का शुक्ल होता है पर दोनों कुहिरे हैं; तैसे ही तम और प्रकाश दोनों तुल्य हैं और आत्मसत्ता दोनों को प्रकाशती है इससे दोनों का आश्रयभूत आत्मसत्ता ही है। हे राक्षसी! रात्रि, दिन, भीतर, बाहर, नदियाँ, पहाड़ आदिक सब लोक आत्मसत्ता