पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३०७

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उत्पत्ति प्रकरण।

यह जगत् भ्रम से भासता है। जैसी जहाँ स्फूर्ति दृढ़ होती है वैसे ही होकर वहाँ भासता है। हे राक्षसी! जो कुछ आकार भासते हैं वे भ्रांति मात्र हैं! जैसे निर्मल आकाश में नीलता भासती है तैसे ही आत्मा में विश्व भासता है। आत्मा सर्वगत और सवका अनुभव है। हे राक्षसी! उसमें व्याप्य-व्यापक भाव भी नहीं क्योंकि सर्व आत्मा है और सर्वरूप भी वही है। जब शुद्धचित्त संवित् संवेदन में फुरता है तब पृथक पृथक भाव चेतता है। इच्छा से जिस पदार्थ की उपलब्धि होती है उसमें व्याप्य-व्यापक भाव की कल्पना होती है—वास्तव में जो इच्छा है वही पदार्थ है। जैसे जल में द्रवता होती है और उससे तरङ्ग, फेन और बुबुदे होते हैं सो सब जलरूप हैं जल से भिन्न नहीं, तेसे ही इच्छा से उपजे पदार्थ आत्मरूप हैं उससे भिन्न नहीं। आत्मा देश, काल और वस्तु के परिच्छेद से रहित है; केवल शुद्ध चिन्मात्र मौर सर्वरूप होकर स्थित हुआ है और सबका अनुभव भी उसी में हुआ है। वह तो शुद्ध सत्तामात्र है उसमें दै्तकल्पना कैसे कहिये? हे राक्षसी! जब कुछ देत होता है तब एक भी होता है; जो कुछ देत ही नहीं तो एक कैसे कहिये? जैसे धूप की अपेक्षा से छाया है और छाया की अपेक्षा से धूप है; तैसे ही एक की अपेक्षा से द्वैत कहाता है इस कल्पना से जो रहित है वही चिन्मात्ररूप है और जगत् भी उससे व्यतिरिक्त नहीं। जैसे जल और द्रवता में कुछ भेद नहीं। तैसे ही आत्मा और जगत् में कुछ भेद नहीं। हे राक्षसी! नाना प्रकार के भारम्भ उसमें दृष्टि आते हैं तो भी आत्मसत्ता सम है। हे राक्षसी! जब सम्यबोध होता है तब दैत भी अद्वैतरूप भासता है, क्योंकि अज्ञान से द्वैत कल्पना होती है। वास्तव में देत कुछ नहीं; अज्ञान के प्रभाव से द्वैत का भी प्रभाव हो जाता है। ब्रह्म और जगत् में कुछ भेद नहीं जैसे जल और दवता, वायु और स्पन्दता और आकाश भौर शून्यता में कुछ भेद नहीं तैसे ही आत्मा और जगत् में कुछ भेद नहीं। हे राक्षसी! दैत और अद्वैत जानना दुःख का कारण है। दैत और अद्वैत की कल्पना से रहित होने कोहीपरमपद कहते हैं। द्रष्टारूप जो जगत् है वह विद्परमाणु में स्थित है और