पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३१

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वैराग्य प्रकरण।

हैं उनमें जो आस्था करते हैं वह महामूर्ख हैं मैं विचार करके ऐसा जानता हूँ कि सब आगमापायी है अर्थात् आते भी हैं और जाते भी हैं। इससे जिस पदार्थ का नाश न हो वही पदार्थ पाने योग्य है इसी कारण मैंने भोगों को त्याग दिया है। हे मुनीश्वर! जितने सम्पदारूप पदार्थ भासते हैं वह सब आपदा हैं; इनमें रुञ्चक भी सुख नहीं। जब इनका वियोग होता है तब कण्टक की नाई मन में चुभते हैं। जब इन्द्रियों को भोग प्राप्त होते हैं तब जीव राग द्वैष से जलता है और जब नहीं प्राप्त होते तब तृष्णा से जलता है-इससे भोग दुःखरूप ही है। जैसे पत्थर की शिला में छिद्र नहीं होता वैसे ही भोगरूपी दुःख की शिला में सुखरूप छिद्र नहीं होता। हे मुनीश्वर! मैं विषय की तृष्णा में बहुत काल से जलता रहा हूँ। जैसे हरे वृक्ष के बिद्र में अग्नि धरी हो तो धुवां हो थोड़ा थोड़ा जलता रहता है वैसे ही भोगरूपी अग्नि से मन जलता रहता है। विषयों में कुछ भी सुख नहीं है दुःख बहुत हैं, इससे इनकी इच्छा करनी मूर्खता है। जैसे खाई के ऊपर तृण और पात होते हैं और उससे खाई पाच्छादित हो जाती है उसको देख हरिण कूदकर दुःख पाता है वैसे ही मूर्ख भोग को सुखरूप जानकर भोगने की इच्छा करता है और जब भोगता है तब जन्म से जन्मान्तररूपी खाई में जा पड़ता है और दुःख पाता है। हे मुनीश्वर! भोगरूपी चोर भज्ञानरूपी रात्रि में आत्मा रूपी धन लूट ले जाता है, पर उसके वियोग से जीव महादीन रहता है। जिस भोग के निमित्त यह यत्न करता है वह दुखरूप है। उससे शान्ति प्राप्त नहीं होती और जिस शरीर का अभिमान करके यह यत्न करता है वह शरीर पणभंगुर और प्रसार है। जिस पुरुष को सदा भोग की इच्छा रहती है वह मूर्ख भोर जड़ है। उसका बोलना और चलना भी ऐसा है जैसे सूखे बांस के छिद्र में पवन जाता है और उसके वेग में राष्पोता है। जैसे थका हुआ मनुष्य मारवाड़ के मार्ग की इच्छा नहीं करता से ही दुःख जानकर मैं भोग की इच्छा नहीं करता। लक्ष्मी भी परम अनर्थकारी हे जब तक इसकी प्राप्ति नहीं होती तब तक उसके पाने का यत्न होता है और यह अनर्थ करके प्राप्त होती है जब लक्ष्मी प्राप्ति हुई तब सब