पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३१०

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योगवाशिष्ठ।

तेरे शरीर का निर्वाह कैसे होगा? राक्षसी बोली, हे राजन्! हजार वर्ष में समाधि में स्थित रही और जब समाधि खुली तब मुझे क्षुधा लगी। मान मैं फिर हिमालय पर्वत की कन्दरा में जाकर निश्चल समाधि में, जैसे मूर्ति लिखी होती है, तैसे ही स्थित हूँगी और जब समाधि से उतरूँगी तब अमृत की धारणा में विश्राम करूंगी। जब उससे उतरूँगी तब शरीर का त्याग करूँगी परन्तु हिंसा न करूँगी। हे राजन्! जिस प्रकार मैंने हिंसाधर्म को अङ्गीकार किया था वह सुन! मुझको जब बड़ी क्षुधा लगी तब उसके निवारण के अर्थ मैं हिमालय पर्वत के उत्तर शिखर पर वन में एक सोने की शिला के पास लोहे के थम्भ की नाई जीवों के नाश के निमित्त तप करने लगी और जब बहुत वर्ष व्यतीत हुए तब ब्रह्माजी ने मनोवांछित वर मुझको दिया। तब मेरे दो शरीर हुए—एक आधार भूत सूर्य की नाई और दूसरा पुर्यष्टक और मैं विसूचिका नाम राक्षसी हुई। उस शरीर से मैं अनेक जीवों के भीतर जाकर उनको भोजन करती रही, परन्तु ब्रह्माजी ने मुझसे कहा था कि जो गुणवान होंगे और जो 'ॐ' मन्त्र पढ़ेंगे उन पर तेरा बल न चलेगा तू निवृत्त हो जावेगी। हे राजन्! उसी मन्त्र का उपदेश अब तुम भी अङ्गीकार करो। उस मन्त्र के पाठ से सबके रोग नष्ट होंगे। ब्रह्माजी का जो उपदेश है उस को तुम नदी के तट पर जाकर और पवित्र होकर शीघ्र ही ग्रहण करो। उसके पाठ से तुम्हारी प्रजा का दुःख नष्ट हो जावेगा। इतना कहकरवशिष्ठजी बोले, हे रामजी! इस प्रकार जब अर्द्धरात्रि के समय राक्षसी ने कहा तब राजा मन्त्री और राक्षसी तीनों निकट नदी के तीर पर गये और अनन्य व्यतिरेक करके आपसे में सुहृद् हुए। जब तीनों पवित्र होकर बैठे तब जो मन्त्र राक्षसी को ब्रह्माजी ने उपदेश किया था वही मन्त्र विसूचिका ने प्रीतिसंयुक्त राजा को उपदेश किया और वहाँ से चलने लगी। तव गजा ने कहा, हे महादेवी! तू हमारी गुरु है इससे हम कुब प्रार्थना करते हैं उसे अङ्गीकार कर। जो महापुरुष हैं उनका सुन्दर सुहृदपना बढ़ता जाता है और तुम्हारा शरीर भी इच्छाचारी है। इससे मन के हरनेवाले भूषण-वस्त्र संयुक्त स्त्री का सा लघु शरीर धरके कुछ काल हमारे