पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३११

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उत्पत्ति प्रकरण।

नगर में निवास करो। राक्षसी बोली, हे राजन! मैं तो लघु आकार भी धरूँगी परन्तु तुम मुझे भोजन न दे सकोगे। जो लघु स्त्री का शरीर धरूँगी तो भी मेरा स्वभाव राक्षसी का है इसको तृप्त करना समान जनों की नाई तो नहीं। जैसा कुछ शरीर का स्वभाव है सो सृष्टि पर्यन्त तैसा ही रहता है—अन्यथा नहीं होता। राजा बोले, हे कल्याणरूपिणि। तू स्त्री समान शरीर धरके हमारे नगर में चलकर रह; जो चोर पापी मेरे मण्डल में आयेंगे वे हम तुझे देंगे और तू उन्हें स्त्री रूप को त्याग करके राक्षसी शरीर से एकान्त और ले जाकर अथवा हिमालय की कन्दरा में जाके भोजन करना, क्योंकि बड़े भोजन करनेवाले को एकान्त में खाना सुखरूप है। जब उनको भोजन करके तृप्त होना तब सो रहना; जब निद्रा से जागना तब समाधि में स्थित होना और जब समाधि से उतरना तब फिर हमारे पास आना हम तेरे निमित्त बन्दीजन इकट्ठे कर रक्खेंगे उनको ले जाकर भोजन करना। जो धर्म के निमित्त हिंसा है वह हिंसा पापरूप नहीं और जिसकी हिंसा करता है उसका मरण भी नहीं बल्कि उस पर दया है, क्योंकि वह पाप करने से छूटता है। रावक्षसी बोली, हे राजन्! तुमने युक्तिसहित वचन कहे हैं इससे मैं स्त्री का शरीर धरके तुम्हारे साथ चलती हूँ। युक्तिपूर्वक वचन को सब कोई मानते हैं इतना कहकर वशिष्ठजी बोले, हे रामजी। इस प्रकार कहकर राक्षसी ने महासुन्दर स्त्री का शरीर धारण किया और बहुत कङ्कण आदिक नाना प्रकार के भूषण और वस्त्र पहिनकर राजा के साथ चली। निदान राजा और मन्त्री आगे चले और स्त्री पीछे चली। राजा उसको अपने ठाम में ले आया और एकान्त स्थान में तीनों बैठे रात्रि को परस्पर चर्चा करते रहे जब प्रातःकाल हुआ तब सौभाग्यवती स्त्री राक्षसी राजा के अन्तःपुर में जा बैठी और जो कुछ स्त्रियों का व्यवहार है वह करती रही और राजा और मन्त्री अपने व्यवहार में लगे। इसी प्रकार जब छः दिन व्यतीत हुए तब राजा के मण्डल में जो तीन सहस्र चोर बंधे हुए थे उन सबको उसने कर्कटी को दे दिया और उसने राक्षसी का शरीर धरके उनको भुजा मण्डल में ले