पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३१२

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योगवाशिष्ठ।

जैसे मेघ बूँदों को धारता है, हिमालय के शिखर को चली। जैसे किसी दरिद्री को सुवर्ण पाने से प्रसन्नता होती है तैसे वह प्रसन्न हुई और वहाँ जा तृप्त होके भोजन किया और सुखी होके सो रही। दो दिन पर्यन्त सोई रही, उसके उपरान्त जागके पाँच वर्ष पर्यन्त समाधि में लगी रही और जब समाधि खुली तब फिर राजा के पास आई। इसी प्रकार जब वह आवे तब राजा उसकी पूजा करे और जितने दुष्ट जन इकट्ठे किये हों उनको दे दे। वह उन्हें ले जाकर हिमालय की कन्दरा में भोजन करके फिर ध्यान में लगे और जब ध्यान से उतरे तब फिर वहाँ आवे और फिर ले जावे। हे रामजी! इसी प्रकार जीवन्मुक्त होकर वह राक्षसी प्रकृत स्वभाव को करती रही और जब अनेक वर्ष व्यतीत हुए तब राजा विदेहमुक्त हुआ। फिर जो कोई उस मण्डल का राजा हो उससे भी राक्षसी की सुहृदता हो।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे राक्षसीसुहृदता
वर्णनन्नामाष्टपञ्चाशत्तमस्सर्गः॥५८॥

वशिष्ठजी बोले; हे रामजी! निदान जब राक्षसी आवे तब किरात देश का राजा पूर्व की नाई उसकी पूजा करे और जो कुछ विसूचिका अथवा दूसरा कोई रोग उनकी प्रजा में हो उसे वह राक्षसी निवृत्त कर दे। इसी प्रकार अनेक वर्ष व्यतीत हुए। एक बार उसको ध्यान में लगे बहुत वर्ष व्यतीत हो गये तब किरातदेश के राजा ने दुःख की निवृत्ति के लिये ऊँचे स्थान पर उसकी प्रतिमा स्थापन की और उस प्रतिमा का एक नाम कन्दरा देवी और दूसरा नाम मङ्गला देवी रक्खा। उसका ध्यान करके सब पूजा करने लगे और उसी से उसका कार्य सिद्ध होने लगा। हे रामजी! उस प्रतिमा में उस देवी ने आप निवास किया जो कोई जिस फल के निमित्त उस प्रतिमा की पूजा करे उसका कार्य सिद्ध हो और न पूजे तो दुःखित हो। इससे जो कोई कुछ कार्य करने लगें वह प्रथम मङ्गला देवी की पूजा करे तो उसका कार्य सिद्ध होवे भौर जो विधि करके उसकी पूजा करे उससे वह बहुत प्रसन्न हो। हे रामजी! अब तक वह प्रतिमा किरातदेश में स्थित है। जिस जिस फल के निमित्त