पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३१३

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उत्पत्ति प्रकरण।

उसकी कोई सेवा करता है तैसा फल उसको वह देती है।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे सुच्याख्यानसमाति
वर्णनन्नामैकोनषष्टितमस्सर्गः॥५९॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! यह आनन्दित कर्कटी का आख्यान जैसे पूर्व हुआ है वैसे ही मैंने तुमसे कहा है। रामजी ने पूछा, हे भगवन्! राक्षसी का कृष्णवपु किस निमित्त था और कर्कटी इसका नाम क्यों था? वशिष्ठजीबोले, हे रामजी! यह राक्षसों के कुल की कन्याथी राक्षसों कावपु शुक्ल भी होता है; कृष्ण भी होता है और रक्त पीत आदि भी होता है। हे रामजी! कर्कटी नाम एक जलजन्तु भी होता है और उसका श्याम आकार होता है; उसी के समान कर्कट नाम एक राक्षस था उसके समान उसकी यह पुत्री हुई; इस कारण इसका नाम कर्कटी हुभा। हे रामजी! यहाँ कर्कटी का और कुछ प्रयोजन न था; अध्यात्मासंग और शुद्ध चेतन के निरूपण के निमित्त मैंने तुमसे यह आख्यान कहा है। यह आश्चर्य है कि असत्रूप जगत् के पदार्थ सवरूप होकर भासते हैं और जो आत्मसत्ता सदा सम्पन्नरूप है वह अविद्यमान की नाइ भासती है। हे रामजी! वास्तव में तो एक अनादि, अनन्त और परम कारण आत्मसत्ता स्थित है; भावना के वश से उसमें जगवरूप भासता है और अनन्यरूप है। जैसे जल और तरङ्ग में कुछ भिन्नता नहीं होती तैसे ही ब्रह्म और जगत् में कुछ भित्रता नहीं। आत्मा में जगत कुछ देतरूप नहीं हुआ; आत्मसत्ता सदा अपने भापही में स्थित है और उसमें जैसा जैसा चित्तस्पन्द दृढ़ होता है तैसा ही तैसा रूप हो कर भासता है जैसे वानर रेत को इकट्ठा करके उसमें अग्नि की भावना करते हैं और तापते हैं तो उनका शीत उसी से निवृत्त होता है तैसे ही सम, स्थित और शान्तरूप आत्मा में जब जगत् की भावना फुरती है तब नाना प्रकार का भासता है। जैसे थम्भे में पुतलियाँ भनउदय ही शिल्पी के मन में उदय की नाई भासती हैं तैसे ही भावना के वश से आत्मा ही जगत् हो भासता है। जैसे वीज में पत्र, फूल, टहनी भोर वृक्ष अनन्यरूप होते हैं वैसे ही ब्रह्म में जगत् अनन्यरूप है। जैसे और वृक्ष में कुछ भेद नहीं तैसे ही ब्रह्म और जगत्