पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३१४

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योगवाशिष्ठ‌।

में कुछ भेद नहीं; अविचार से भेद भासता है और विचार किये से जगत्भेद नष्ट हो जाता है। हे रामजी! अव यह विचार न करना कि कैसे उपजा है; कहाँ से आया है और कब का हुआ है। जैसे हुआ तैसे हुआ, अब इसकी निवृत्ति का उपाय करना चाहिए। जब तुम यह जानोगे तब हृदय की चिद्जड़ ग्रन्थि टूट जावेगी। शब्द और अर्थ की जो कुछ कल्पना उठती है सो मेरे वचनों और स्वरूप में स्थित भये से नष्ट हो जावेगी। हे रामजी! यह सब जगत् अनर्थ चित्त से उपजा है और मेरे वचनों के सुनने से शान्त हो जावेगा। इसमें संशय नहीं कि सब जगत् ब्रह्म से उपजा है और सब ब्रह्मस्वरूप ही है पर जब तुम ज्ञान में जागोगे तव ज्यों का त्यों ही जानोगे। रामजी ने पूछा, हे भगवन्! जो जिससे होता है वह उससे व्यतिरेक होता है; जैसे कुलाल से घट भिन्नरूप होता है, तो आप कैसे कहते कि सब जगत् ब्रह्म से उपजा है और ब्रह्मस्वरूप ही है? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! यह जगत् ब्रह्म से ही उपजा है। जितने कुछ प्रतियोगी शब्द शास्त्रों ने कहे हैं सो दृश्य में हैं। शास्र ने उपदेश जताने के निमित्त कहे हैं, वास्तव में यह शब्द कोई नहीं। जैसे किसी बालक को परछाही में वैताल भासता है तो पूलते हैं कि किस भाग में स्थित होकर वैताल ने भय दिया है और वह कहता है कि अमुक ठोर में वैताल ने भय दिया है सो वह व्यवहार के निमित्त कहता है, पर वैताल तो वहाँ कोई भी न था, तैसे ही आत्मा में उपदेश के निमित्त भेदकल्पना करी है वास्तव में द्वैतकल्पना कोई नहीं। हे रामजी! ब्रह्म से जगत् हुआ है यह अर्थ केवल व्यतिरेक में नहीं होता। कुलाल जो दण्ड से घट उपजाता है सो व्यतिरेक के अर्थ है। स्वामी का टहलुभा यह भिन्न के अर्थ है और ये अभिन्नरूप भी होते हैं। जैसे अवयवी के अवयव हैं; सुवर्ण से भूषण हुए हैं और मृत्तिका से घट हुए हैं तैसे ही अभिन्न और अवयवी का स्वरूप है। जैसे भूषण स्वर्णरूप है, घट मृत्तिकारूप हे तैसे ही ब्रह्म से उपजा जगत् ब्रह्मरूप ही है। वास्तव में भिन्न-भिन्न, कारण परिणाम, भाव-विकार, अविद्या और विद्या, सुख-दुःख आदिक मिथ्याकल्पना अज्ञान से उठती