पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३१५

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उत्पत्ति प्रकरण।

हैं। हे रामजी! अबोध से भेदकल्पना होती है और ज्ञान से सब कल्पना शान्त हो जाती हैं। केवल अशब्दपद शेष रहता है। जब तुम ज्ञानयोग होगे तब ऐसे जानोगे कि आदि-मध्य-अन्त से रहित; अविभाग और प्रखण्डरूप एक आत्मसत्ता ज्यों की त्यों स्थित है। अज्ञान से अथवा जिज्ञासु को उपदेश के निमित्त द्वैतवाद कल्पना है; बोध होने से द्वैत भेद कुछ नहीं रहता। हे रामजी! वाच्यवाचकभाव द्वैत बिना सिद्ध नहीं होता। जब बोध होता है तब वाच्य का मौन होता है। इससे महावाक्य के अर्थ में निष्ठा करो और जो कुछ भेद कल्पना मन ने रची है उसकी निवृत्ति के अर्थ मेरे वचन सुनो। हे रामजी! यह मन ऐसे उपजा है जैसे गन्धर्वनगर होता है और उसी ने जगत् की रचना की है। मैंने जैसे देखा है तेसे तुमसे दृष्टान्त में कहता हूँ; जिसके जाने से सब जगत् तुमको भ्रान्तिमात्र भासेगा। वह निश्चय धारण करके तुम जगत् की वासना दूर से त्याग दोगे और बोध से सब जगत् तुमको मन का मनरूप भासेगा। तब तुम आत्मरूप होकर अपने आप में निवास करोगे अर्थात् जगत् की कल्पना त्याग करके अपने स्वभावसत्ता में स्थित होगे। इसलिये इसको सावधान होकर सुनो। हे रामजी! यह मनरूपी बड़ारोग है इसलिये विवेकरूपी औषध से उसकोशान्त करना चाहिए। सब जगत् चित्त की कल्पना है। वास्तव में वह शरीर आदिक कुछ नहीं जैसे रेत से तेल नहीं निकलता; तैसे ही जगत् से वास्तव में कुछ नहीं निकलताचित्त द्वारा भासता है। वह चित्तरूपी संसार स्वम की नाई है और रागद्वेष आदिक सङ्कल्पों से युक्त है। उससे रहित होता है वही संसार समुद्र के पार जाता है। इसलिये शुभ गुणों से चित्त की शुद्धि करो। जो विवेकी हैं वे शुभकार्य करते हैं अशुभ नहीं करते हैं और आहार व्यवहार भी विचार के करते हैं। उन्हीं आयों की नाई तुम भी शास्त्रों के अनुसार चेष्टा करो। जब तुमको ऐसा अभ्यास होगा तब तुम शीघ्र ही ज्ञानवान् होगे और ज्ञान के पास होने से सब कल्पना मिट जावेंगी और आत्मस्थिति होगी। चित्त ने सब जगरूपी चित्र मन ही मन रचे हैं। जैसे मोर का अण्डा काल पाकर अनेक रङ्ग धारण करता है तैसे ही मन