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योगवाशिष्ठ।

अनेक प्रकार के जगत् धारण करता है वह मन जड़ और अजड़ रूप है उसमें जो चेतनभाग है वह सब अयों का बीजरूप है अर्थात् सबका उपादान है और जड़ भाग जगतरूप है। हे रामजी! सर्ग के आदि में पृथ्वी आदिक तत्त्व न थे। जैसे स्वप्न में जगत् विद्यमान की नाइ भासता है तैसे ही ब्रह्मा ने विद्यमान की नाई उसको देखा। जड़संवेदन से पहाड़ आदिक जगत् देखा और चेतनसंवेदन से जङ्गमरूप देखा। वह सब जगत् दीर्घ वेदना है। वास्तव में देहादिक सब शून्यरूप हैं और आत्मा में व्यापे हुए हैं। आत्मा का कोई शरीर नहीं। अपने से जो दृश्यरूप मन चेता है वही आत्मा का शरीर है। वह आत्मा विस्तरण रूप है और निर्मल स्थित है और मन उसका आभासरूप है। जैसे सूर्य की किरणों से जलाभास होता है तैसे ही आत्मा का आभास मन है। वह मनरूपी बालक अज्ञान से जगतरूपी पिशाच को देखता है और ज्ञान से परमात्मपद शान्तरूप निरामय को देखता है। हे रामजी! जब आत्मा चैत्यता को प्राप्त होती है तब वही चित्तरूप दृश्य एक ब्रह्म का द्वैत देखता है। उसकी निवृत्ति के लिए मैं तुमसे एक कथा कहता हैं। गुरु के वचन जो दृष्टान्त सहित होते हैं और वाणी भी मधुर और स्पष्ट होती है तो श्रोता के हृदय में वह अक्षर जैसे जल में तेल की बूँद फैल जाती है तैसे ही फैल जाते हैं और जो दृष्टान्त से रहित होते और अर्थ स्पष्ट नहीं होता तो वह बोभसंयुक्त वचन कहाता है और अक्षर पूर्ण नहीं होते; इसलिये वे वचन श्रोता के हृदय में नहीं ठहरते और उपदेष्टा के वचन निष्फल हो जाते हैं। मैं तुमसे एक आख्यान नाना प्रकार के दृष्टान्तों सहित; मधुरवाणी में स्पष्ट करके कहता हूँ। जैसे चन्द्रमा की किरणें अपने गृह पर उदय हों और मन्दिर शीतल हो जावे तैसे ही मेरे स्पष्ट वचन और आकाशरूप अर्थ सुनने से तुम्हारा भ्रम निवृत्त हो जावेगा।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे मनअंकुरोत्पत्तिथकनन्नाम
षष्टितमस्सर्गः॥६०॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! पूर्व जो मुझसे ब्रह्माजी ने सर्ग का वृत्तान्त कहा है वह मैं तुमसे कहता हूँ। एक समय मैंने ब्रह्माजी के पास जाकर