पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३१८

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योगवाशिष्ठ।

नगरवत् सृष्टि देखी। एक एक ब्रह्माण्ड में स्थावर जङ्गम ऐसी प्रजा देखी जैसे गूलर के फल में अनेक मच्छर होते हैं। आत्मा में काल का भी प्रभाव है। क्षण, लव, दिन, मास और वर्षों का प्रवाह चला जाता है। हे मुनीश्वर! अन्तवाहक दृष्टि से मैंने उन सृष्टियों को देखा जब मैं चर्मदृष्टि से देखू तब कुछ न भासे और दिव्यदृष्टि से देखू तो सब कुछ भासे। चिरकाल पर्यन्त मैं यह चरित्र देखता रहा कि कदाचित् चित्तभ्रम हो तो स्पष्ट भासे। तब एक सृष्टि के सूर्य को देखके मैंने भावाहन किया और जब वह मेरे निकट भाया तो मैंने उससे कहा; हे देवदेवेश, भास्कर! तुम कुशल से तो हो? ऐसे कहकर मैंने फिर कहा कि हे सूर्य! तुम कौन हो और यह सृष्टि कहाँ से उपजी है? यह एक जगत् है व ऐसे अनेक जगत् हैं; जैसे तुम जानते हो कहो? तब वह सूर्य भी जो त्रिकालज्ञान रखता था मुझको जान के प्रणामकर आनन्दित वाणी से बोला, हे ईश्वर! इस दृश्यरूपी पिशाच के आप ही नित्य कारण होते हैं। आप तो सब जानते ही हैं तो मुझसे क्यों पूछते हैं। यदि लीला के अर्थ पूछते हो तो जैसे हुआ है तैसे मैं आपके सम्मुख निवेदन करता हूँ। हे भगवन्! यह जो सत् असत् रूपी नाना प्रकार के व्यवहारों संयुक्त जगत् भासता है वह सब मन के फुरने में स्थित है।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे आदित्यसमागमनामैक
षष्टितमस्सर्गः॥६१॥

भानु बोले, हे भगवन्! आपका जो कल्प का दिन व्यतीत भया है उसमें जो जम्बूदीप था उसके एक कोने में कैलास पर्वत था और उसकी कन्दरा में सुवर्णज्येष्ठ नाम आपका एक पुत्र रहता था। उसने वहाँ एक कुटी रची जिसमें साधुजन निवास करते थे। इन्दुनाम ब्राह्मण वेदवेत्ता शान्तरूप ने कश्यप ऋषि के कुल में उत्पन्न हो नी सहित उस कुटी में जाके निवास किया और उस स्त्री से प्राणों की नाई स्नेह करता था। जैसे मरुस्थल में घास नहीं उपजती तेसे ही उससे सन्तान न उप्जे। और जैसे शरद्काल की बेलि बहुत सुन्दर होती है परन्तु फल से शन्य होती है तैसे ही वह भी थी। तब दोनों पुरुष पुत्र के निमित्त कैलास