पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३२०

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योगवाशिष्ठ।

पाने से फिर दुःखी भी न हो और नाश भी न हो और सबका ईश्वर हो। तब एक भाई ने कहा कि सबसे बड़ा ऐश्वर्य मण्डलेश्वर का है। क्योंकि सब पर उसकी मात्रा चलती है। दूसरे भाई ने कहा कि मण्डलेश्वर की विभूति भी कुछ नहीं, क्योंकि वह भी राजा के आधीन होता है, इससे राजा का पद बड़ा है। तीसरे ने कहा राजा की विभूति भी कुछ नहीं; क्योंकि राजा चक्रवर्ती के अधीन होता है इसलिए चक्रवर्ती का पद बढ़ा है। चौथे ने कहा कि चक्रवर्ती भी कुछ नहीं, क्योंकि वह भी यम के अधीन होता है, इससे यम का पद बड़ा है। पाँचवें ने कहा कि इन्द्र के आगे यम की विभूति कुछ नहीं इससे इन्द्र का पद बड़ा है। छठे ने कहा कि इन्द्र की विभूति भी कुछ नहीं ब्रह्मा के एक मुहूर्त में इन्द्र नष्ट हो जाता है तब सबसे बड़े भाई ने जो बड़ा बुद्धिमान था गम्भीर वचन से कहा कि जो कुछ विभूति है सो सब ब्रह्मा के कल्प में नष्ट हो जाती है—इससे बड़ा ऐश्वर्य ब्रह्माजी का है इससे बड़ा और कोई नहीं। हे भगवन्! इस प्रकार जब बड़े भाई ने कहा तब सबने कहा, भली कही! भली कही। फिर सबने बड़े भाई से कहा, हे तात! जो सबका दुःखनाशकर्ता और जगत्पूज्य ब्राह्मपद है तो उसको कैसे प्राप्त हों? जिस उपाय से हम प्राप्त हों वह उपाय कहो। उसने कहा, हे भाइयो! और सब भावनाओं को त्याग करो और यह निश्चय करो कि हम ब्रह्मा है और पदमासन पर बैठे हैं। सब सृष्टि के कर्ता और सबकी पालना और संहारकर्ता हम ही हैं और जो कुछ जगज्जाल है उसका पाश्रयभूत हम नहीं। सब सृष्टि हमारे अङ्ग में स्थित है जब हम ऐसा निश्चय और सजातिभावना धरके बैठेंगे तब हमको ब्रह्मा का पद प्राप्त होगा। हे भगवन्! जब इस प्रकार बड़े भाई ने कहा तब छोटे भाइयों ने कहा, हे तात! तुमने यथार्थ कहा है जैसे तुमने कहा है तैसे ही हम करते हैं। ऐसा कहकर सब ध्यान में स्थित हुए और जैसे कागज पर मूर्ति लिखी होती है तैसे ही दशों ध्यान स्थित हुए। मन में हरएक ने यही चिन्तवन किया कि मैं ब्रह्मा हूँ; कमल मेरा आसन है, मैं सृष्टिकर्ता और भोक्ता हूँ और महेश्वर भी मैं ही हूँ। साङ्गोपाङ्ग जगत्कर्म मैंने ही स्चे हैं; सरस्वती और