पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३२४

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योगवाशिष्ठ।

तुम्हारे नगर में भी एक इन्द्र ब्राह्मण है। हे भगवन्! जब इस प्रकार रानी ने सुना तब उस इन्द्र में रानी का अनुराग हुआ परन्तु वह रानी को न मिले और रानी का शरीर इसी कारण दिन पर दिन सूखता जावे। निदान राजा ने सुना कि उसको गरमी का कुछ रोग है इस कारण उसकी निवृत्ति के लिये केले के पत्र और शीतल औषधि उसको दिलवाये परन्तु उसको वाञ्छित पदार्थ कोई दृष्टि न पाये और खाना,पीना, शय्यादिक जो कुछ इंद्रियों के वाञ्छित पदार्थ हैं वह उसको कोई सुखरूप न भासे। वह दिन दिन पीत वर्ण होती जावे और इन्द्र के वियोग से जैसे जल विनामबली मरुस्थल में तड़फे तैसे ही वह तड़फती रहे और कहे हा इन्द! हा इन्द्र! निदान जब उसने लोकलाज त्याग दी और इन्द्र में उसका बहुत स्नेह बढ़ गया तब विचारकर एक सखी ने कहा हे रानी! मैं ब्राह्मण को ले भाती हूँ यह सुन रानी सावधान हुई और जैसे चन्द्रमा को देखके कमलिनी खिल पाती है तैसे वह खिल आई। वह सखी रानी से कहके ब्राह्मण के घर गई और उस इन्द्र को अबोध करके रात्रि के समय अहल्या के पास ले आई। जब वह गोप्यस्थान में इकट्ठे हुए तो परस्पर लीला करने लगे और दोनों का चित्त परस्पर स्नेह से बँध गया और बहुत प्रसन्न हुए। जैसे बकवी-चकवे और रति और कामदेव का स्नेह होता है तैसे ही उनका स्नेह हुमा और एक दूसरे विना एक क्षण भी रह न सके। निदान सब किया उनकी विवृत्त हो गई और लजा भी दूर हो गई। जैसे चन्द्रमा को देखकर चन्द्रमुखी कमल प्रसन्न हो तैसे ही एक दूसरे को देखके वे प्रसन्न होवें। हे भगवन्! उस रानी का भर्ती भी बड़ा गुणवान था परन्तु रानी ने भर्ती का त्याग किया और इन्द्र से उसने स्नेह किया। जब राजा ने उनका सम्पूर्ण वृत्तान्त सुना तो उनको दण्ड देने लगा, परन्तु उनको कुछ खेद न हो और जब कीचड़ में डालें तब कमल की नाई ऊपर ही रहे, कुछ कष्ट न हो। फिर जब वरफ में उनको डाला तो भी खेदवान न हुए। तब राजा ने कहा, हे दुर्मतियो! तुमको दुःख क्यों नहीं होता? उन्होंने कहा हमको दुःख कैसे हो, हम तो अपने आपको भी