पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३२५

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उत्पत्ति प्रकरण।

नहीं जानते? तब अहल्या ने कहा मुझको सब इन्द्र ही भासता है; भिन्न दुःख क्या हो? इन्द्र ने कहा मुझको सब अहल्या ही भासती है; भिन्न दुःख कहाँ हो? तेरे दण्ड देने से हमको कुब दुःख नहीं होता हम परस्पर वह न जले और फिर हाथी के चरणोंतले डलवा दिये गये तो भी उनको कुछ कष्ट न हुआ। तब राजा ने कहा, रे पापियो! तुमको अग्नि आदिक में दुःख क्यों नहीं होता? तब इन्द्र ने कहा, हे राजन्! जो कुछ जगज्जाल है वह मन में स्थित है। जैसा मन है तैसा पुरुषरूप है। जैसा निश्चय मन में दृढ़ होता है उसको कोई दूर नहीं कर सकता। चाहे कोई हमको दण्ड दे परन्तु हमको कुछ दुःख न होगा, क्योंकि हमारे हृदय में परस्पर प्रतिभा हो रही है। जो कोई अनिष्ट हमको हो तो दुःख भी हो हमको अनिष्ट तो कोई नहीं तब दुःख कैसे हो? हे राजन्! जो कुछ मन में दृढ़ीभूत होता है वही भासता है उसका निश्चय कोई दूर नहीं कर सकता। शरीर नष्ट हो जाता है परन्तु मन का निश्चय नष्ट नहीं होता। हे राजन्! जो मन में तीन संवेग होता है सो वर और शाप से भी दूर नहीं होता। जैसे सुमेरु पर्वत को मन्द-मन्द वायु नहीं चला सकता तैसे ही मन के निश्चय को कोई नहीं चला सकता। मेरे हृदय में इसकी मूर्ति स्थिरीभूत है और इसके हृदय में मेरी मूर्ति स्थिरीभूत है। इसको सब जगत में ही भासता हूँ और मुझको सब जगत् यही भासती हैं। जो कुछ दूसरा भासे तो दुःख भी हो। जैसे लोहे के कोट में कोई दुःख नहीं दे सकता तैसे ही मुझको कोई दुःख नहीं, मैं जहाँ जाता हूँ वहाँ सब ओर से अहल्या ही भासती है। जैसे ज्येष्ठ आषाढ़ की वर्षा में पर्वत चलायमान नहीं होता तैसे ही हमको दुःख नहीं। हे राजन! मन का ही नाम अहल्या और इन्द्र है और मन ही ने सब जगत् रचा है। जैसा-जैसा मन में दृढ़ निश्चय होता हे तैसा ही भासता है भोर सुमेरु की नाई स्थिर हो जाता है, कदापि नष्ट नहीं होता। जैसे पत्र, फल, फल, और टहनी के काटने से वृक्ष नष्ट नहीं होता; जब बीज ही नष्ट हो तब वृक्ष नष्ट होता है तैसे ही शरीर के नष्ट होने से मन का