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उत्पत्ति प्रकरण।

दिया तो उनके शरीर नष्ट हुए परन्तु मन का जो कुछ निश्चय था सो नष्ट न हुआ। वे जहाँ शरीर पावें वहाँ दोनों इकट्ठे ही अकृत्रिम प्रेमवान रहें और किसी से आनन्दमान न हों।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे अहल्यानुरागसमाप्तिवर्णनन्नाम
षट्षष्टितमस्सर्गः॥६६॥

भानु बोले, हे नाथ! आप देखें कि जैसा मन का निश्चय होता है उसके अनुसार आगे भासता है। इन्द्र के पुत्र की सृष्टिवत् मन के निश्चय को कोई दूर नहीं कर सकता। हे जगत् के पति! मन ही जगत् का कर्ता और मन ही पुरुष है। मन का किया सब कुछ होता है और शरीर का किया कोई कार्य नहीं होता। जो मन में दृढ़ निश्चय होता है वह किसी औषध से दूर नहीं होता। जैसे मणि में प्रतिविम्ब मणि के उठाये बिना नहीं दूर होता तैसे ही मन का निश्चय भी किसी और से दूर नहीं होता जब मन ही उल्टे तब ही दूर हो। इसी से कहा है कि अनेक सृष्टि के भ्रम चित्त में स्थित है। इससे हे ब्रह्माजी भाप भी चिदाकाश में सृष्टि रचो। हे नाथ! तीन आकाश हैं-एक भूताकाश; दूसरा चित्ताकाश और तीसरा चिदाकाश। ये तीनों अनन्त हैं; इनका अन्त कहीं नहीं। आताकाश चित्ताकाश के आश्रय स्थित है भोर चित्ताकाश चिदाकाश के आश्रय है। भूताकाश और चित्ताकाश ये दोनों चिदाकाश के आश्रय प्रकाशित हैं। इससे चिदाकाश के आश्रय जितनी आपकी इच्छा हो उतनी सृष्टि आप भी रचिये। चिदाकाश अनन्तरूप है। इन्द्र ब्राह्मण के पुत्रों ने भापका क्या लिया है? अपना नित्यकर्म आप भी कीजिये। ब्रह्माबोले; हे वशिष्ठजी! इस प्रकार जबसूर्य ने मुझसे कहा तो मैंने विचार करके कहा, हे भानु! तुमने युक्त वचन कहे हैं कि एक भूताकाश है; दूसरा चित्ताकाश है और तीसरा चिदाकाश है, वे तीनों अनन्त हैं परन्तु भूताकाश और चित्ताकाश दोनों चिदाकाश के आश्रय फुरते हैं। इससे हम भी अपने नित्यकर्म करते हैं और जो कुछ मैं तुमको कहता हूँ वह तुम भी मानो। मेरी सृष्टि के तुम मनु प्रजापति हो और जैसी तुम्हारी इच्छा हो तैसे रचो। सूर्य ने मेरी मात्रा मानके अपने दो शरीर किये-एक तो