पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३२८

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योगवाशिष्ठ।

पूर्व के सूर्य से उस सृष्टि का सूर्य हुआ और दूसरा शरीर स्वायम्भुवमनु का किया। और मेरी मात्रा के अनुसार उसने सृष्टि रची। इससे मैंने तुमसे कहा है कि यह जगत् सब मन का रचा हुआ है। जो मन में दृढ़ निश्चय होता है वही सफल होता है। जैसे इन्द्र ब्राह्मण की सृष्टि हुई। हे मुनीश्वर! देह के नष्ट हुए भी मन का निश्चय दूर नहीं होता; चित्त में फिर भी वही आस पाता है। वह चित्त आत्मा का किञ्चनरूप है। जैसे उसमें स्फति होती है तैसे ही होकर भासता है। प्रथम जो शुद्ध संवितरूप में उत्थान हुमा है वह अन्तवाहक शरीर है और फिर जो उसमें दृढ़ अभ्यास और स्वरूप का प्रमाद हुआ तो आधिभौतिक शरीर हुए और जब आधिभौतिक का अभिमानी हुमा तब उसका नामी जीव हुआ। देहाभिमान से नाना प्रकार की वासना होती है और उनके अनुसार घटीयन्त्र की नाई भटकता है। जब फिर आत्मा का बोध होता हे तब देह से आदि लेकर दृश्य शान्त हो जाता है। हे मुनीश्वर! यह सब दृश्य भ्रम से भासता है; वास्तव में न कोई उपजा है और न कोई जगत् है। यह सब भ्रम चित्त ने रचा है उसके अनुसार घटीयन्त्र की नाई भटकता है। जब फिर आत्मा का बोध होता है तब देह से आदि ले सब प्रपञ्च शान्त हो जाते हैं। हे मुनीश्वर! जो कुछ दृश्य भासता है वह मन से भासता है। वास्तव में न कोई माया है और न कोई जगत् है—यह सब भ्रम भासता है। हे वशिष्ठजी! और देत कुछ नहीं; चित्त के फुरने से ही अहं त्वं आदिक भ्रम भासते हैं। जैसे इन्द्र ब्राह्मण के पुत्र मन के निश्चय से ब्रह्मारूप हो गये तैसे ही मैं ब्रह्मा हूँ। शुद्ध आत्मा में जो चैत्यता होती है वही ब्रह्मारूप होकर स्थित है और शुद्ध आत्मा में जो चैत्यता होती है वही मनरूप है। उस मन के संयोग से चैतन को जीव कहते हैं। जब इसमें जीवत्व होता है तब अपनी देह देखता है और फिर नाना प्रकार के जगभ्रम देखता है। जैसे इन्द्र ब्राह्मण के पुत्रों को सृष्टि भासी और जैसे भ्रम से आकाश में दूसरा चन्द्रमा और रस्सी में सर्प भासता है तैसे ही जगत् सत्य भी नहीं और असत्य भी नहीं। प्रत्यक्ष देखने से सत्य भासता है और नाशभाव से असत्य है और