पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३३

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वैराग्य प्रकरण।

हो जाता है। जैसे किसी के घर में चिन्तामाणि दबी हो तो उसको जब तक खोदकर वह नहीं लेता तब तक दरिद्री रहता है वैसे ही (अज्ञान से) ज्ञान बिना महादीन हो रहता है और आत्मानन्द को नहीं पा सकता। आत्मानन्द में विघ्न करनेवाली लक्ष्मी है। इसकी प्राप्ति से जीव अन्धा हो जाता है। हे मुनीश्वर! जब दीपक प्रज्वलित होता है तब उसका बड़ा प्रकाश दृष्टि आता है और जब बुझ जाता है तब प्रकाश का प्रभाव हो जाता है पर काजल रह जाता है, वैसे ही जब लक्ष्मी की प्राप्ति होती है तब बड़े भोग भुगाती है और तृष्णारूपी काजल उससे उपजता रहना है और जब लक्ष्मी का अभाव होता है तब तृष्णारूप वासना छोड़ जाती है। उस वासना (तृष्णा) से अनेक जन्म और मरण पाता है, कभी शान्ति नहीं पाता। हे मुनीश्वर! जब लक्ष्मी की प्राप्ति होती है, तब शान्ति के उपजानेवाले गुणों का नाश करती है। जैसे जब तक पवन नहीं चलता तब तक मेघ रहता है और जब पवन चलता है तो मेघ का अभाव हो जाता है वैसे ही लक्ष्मीजी की प्राप्ति होने से गुणों का अभाव होता है और गर्व की उत्पत्ति होती है। हे मुनीश्वर! जो शूर होकर अपने मुख से अपनी बड़ाई न करे सो दुर्लभ है और सामर्थ्यवान् हो किसी की अवज्ञा न करे सब में समबुद्धि राखे सो भी दुर्लभ है वैसे ही लक्ष्मीवान होकर शुभ गुण संयुक्त हो सो भी दुर्लभ है। हे मुनीश्वर! तृष्णारूपी सर्प के विष के बढ़ाने को लक्ष्मीरूपी दूध है उसे पीते, पवनरूपी भोग के आहार करते कभी नहीं अघाता। महामोहरूपी उन्मत्त हस्ती है उसके फिरने का स्थान पर्वत की भटवीरूपी लक्ष्मी है और सद्गुणरूप सूर्यमुखी कमल की लक्ष्मी रात्रि है और भोगरूपी चन्द्रमुखी कमलों की लक्ष्मी चन्द्रमा है और वैराग्यरूप कमलिनी का नाश करनेवाली लक्ष्मी बरफ है और ज्ञानरूपी चन्द्रमा का आच्छादन करनेवाली लक्ष्मी राहू है और मोहरूप उलूक की लक्ष्मी मानो रात्रि हैं दुःखरूप विजली को लक्ष्मी आकाश है और तृणरूपी बेलि को बढ़ानेवाली लक्ष्मी मेघ है। तृष्णारूप तरंग को लक्ष्मी समुद्र है, तृष्णारूप भँवर को लक्ष्मी कमलिनी है और जन्म के दुःखरूपी जल का लक्ष्मी