पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३३०

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योगवाशिष्ठ।

का जड़भाव नहीं रहता। जैसे पारसमणि के मिलाप से ताँबा सुवर्ण हो जाता है और फिर उसका ताँबा भाव नहीं रहता तैसे ही जब मन आत्मा में स्थित होता है तब उसकी जड़ता दृश्यभाव नहीं रहती। जैसे सुवर्ण। को शोधन करने से उसका मैल जल जाता है और शुद्ध ही शेष रहता हे तैसे ही चित्त जब आत्मा में स्थित होता है तब उसका जड़भाव जल जाता है और शुद्ध चैतनमात्र शेष रहता है। वास्तव में पूछो तो शुद्ध भी द्वैत में होता है; आत्मा में द्वैत नहीं इससे शुद्ध कैसे हो? जैसे आकाश के फल और वृक्ष वास्तव में कुछ नहीं होते तैसे ही शोधन भी वास्तव में कुछ नहीं। हे मुनीश्वर! जब तक आत्मा का ज्ञान है तब तक नाना प्रकार का जगत् भासता हे और जब आत्मा का बोध होता है तब जगभ्रम नष्ट हो जाता है। यह जगभ्रम चित्त में है; जैसा निश्चय चित्त में होता है तैसा ही हो भासता है इसी पर अहल्या भौर इन्द्र का दृष्टान्त कहा है। इससे जैसी भावना दृढ़ होती है तैसा हो भासता है। हे वशिष्ठजी! जिसको यही भावना दृढ़ है कि मैं देह हूँ वह पुरुष देह के निमित्त सब चेष्टा करता है और इसी कारण बहुत काल पर्यन्त कष्ट पाता है। जैसे बालक वैताल की कल्पना से भय पाता है तैसे ही देह में अभिमान से जीव कष्ट पाता है। जिसकी भावना देह से निवृत्त होकर शुद्ध चैतनभाव में प्राप्त होती है उसको देहादिक जगत् भ्रम शान्त हो जाता है।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्निप्रकरणे जीवक्रमोपदेशोनाम
सप्तषष्टितमस्सर्गः॥६७॥

वशिष्ठजी बोले; हे रामजी! जब इस प्रकार ब्रह्माजी ने मुझसे कहा तब मैंने फिर प्रश्न किया कि हे भगवन्! आपने कहा है कि शाप में मन्त्रादिकों का बल होता है। वह शाप भी अचलरूप है, मिटता नहीं। मैंने ऐसा भी देखा है कि शाप से मन, बुद्धि और इन्द्रियाँ भी जड़ीभूत हो जाती हैं, पर ऐसा तो नहीं है कि देह को शाप हो और मन को न हो। हे भगवन्! मन मोर देह तो अनन्यरूप हैं। जैसे वायु जौर स्पन्द में और घृत और चिकनाई में भेद नहीं होता तैसे ही मन और जगत् में भेद