पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३३१

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उत्पत्ति प्रकरण।

नहीं। यदि कहिये कि देह कुछ वस्तु नहीं, चैतन्य ही चित्त है और देह भी चित्त में कल्पित है—जैसे स्वमदेह; मृगतृष्णा का जल और दूसरा चन्द्रमा भासता है सो एक के नष्ट हुए दोनों क्यों नहीं नष्ट होते तैसे देह के शाप से चाहिए कि मन को भी शाप लग जावे तो मैंने देखा है कि शाप से भी जड़ीभूत हो गये हैं और आप कहते हैं कि देह का कर्म मन को नहीं लगता। यह कैसे जानिये? ब्रह्मा बोले, हे मुनीश्वर! ऐसा पदार्थ जगत् में कोई नहीं जो सब कर्मों को त्यागकर पुण्यरूप पुरुषार्थ करने से सिद्ध न हो। पुरुषार्थ करने से सब कुछ होता है। ब्रह्मा से चींटी पर्यन्त जिस जिसकी भावना होती है तैसा ही रूप हो भासता है। सब जगत् के दो शरीर हैं—एक मनरूपी जो चञ्चलरूप है और दूसरा आषिभौतिक मांसमय शरीर है उसका किया कार्य निष्फल होता है और मन से जो चेष्टा होती है वह सुफल होती है। हे मुनीश्वर! जिस पुरुष को मांसमय शरीर में अहंभाव है उसको आधिव्याधि और शाप भी अवश्य लगता है और मांसमय शरीर जो गूंगे; दीन और क्षणनाशी हैं उनके साथ जिसका संयोग है वह दीन रहता है। चित्तरूपी शरीर चञ्चल है वह किसी के वश नहीं होता अर्थात् उसका वश करना महा कठिन है। जब हद वैराग्य और अभ्यास हो तब वह वश हो-अन्यथा नहीं होता। मन महाचञ्चल है और यह जगत् मन में है। जैसा जैसा मन में निश्चय है सो दूर नहीं होता। मांसमय शरीर का किया कुछ सुफल नहीं होता और जो मन का निश्चय है सो दूर नहीं होता। हे मुनीश्वर! जिन पुरुषों ने चित्त को आत्मपद में स्थित किया है उनको अग्नि में भी डालिये तो भी दुःख कुछ नहीं होता और जल में भी उनको दुःख नहीं होता, क्योंकि उनका चित्त शरीरादिक भाव प्रहण नहीं करता केवल आत्मा में स्थित होता है। हे मुनीश्वर! सब भावों को त्यागकर मन का निश्चय जिसमें दृढ़ होता है वही भासता है। जहाँ मन दीभूत होकर चलता है उसको वही भासता है और किसी संसार के कष्ट और शाप से चलाय मान नहीं होता। जो किसी दुःख शाप से मन विपर्ययभाव में प्राप्त हो जावे तो जानिये कि यह दृढ़ लगान था—अभ्यास की शिथिलता थी।