पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३३२

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योगवाशिष्ठ।

है मुनीश्वर! मन की तीव्रता के हिलाने में किसी पदार्थ की शक्ति नहीं, क्योंकि सृष्टि मानसी है। इससे मन में मन को समाय चित्त को परमपद में लगावो। जब चित्त आत्मा में दृढ़ होता है तब जगत् के पदार्थों से चलायमान नहीं होता। माण्डव्य ऋषीश्वर को जिनका चित्त आत्मा में लगा हुआ था शूली पर भी खेद न हुआ। हे मुनीश्वर! जिसमें मन दृढ़ होकर लगता है उसको कोई चला नहीं सकता। जैसे इन्द्र बाह्मण चलायमान न हुमा तैसे ही आत्मा में स्थिर हुमा मन चलायमान नहीं होता। हे मुनीश्वर! जैसा जैसा मन में तीव्रभाव होता है उसी की सिद्धता होती है। दीर्घतपा एक ऋषि था वह किसी प्रकार अन्धे कूप में गिर पड़ा और उस कूप में मन को दृढ़कर यज्ञ करने लगा। उस यब से मन में देवता होकर इन्द्रपुरी में फल भोगने लगा और जैसे इन्द्र ब्राह्मण के पुत्र मनुष्यों के समान थे भोर उनके मन में जो ब्रह्मा की भावना थी उससे वे दशों ब्रह्मा हुए और दशों ने अपनी अपनी सृष्टि रची और वह सृष्टि मुझसे भी नहीं खण्डित होती। इससे जो कुछ दृढ़ अभ्यास होता है वह नष्ट नहीं होता। देवता और महाऋषि आदि जो धैर्यवान हुए हैं और जिनकी एक क्षणमात्र भी वृत्ति चलायमान नहीं होती थी उनको संसार की आधि-व्याधि, ताप, शाप, मन्त्र और पापकर्म से लेकर संसार के जो क्षोभ और दुःख हैं नहीं स्पर्श करते थे। जैसे कमलफल का प्रहार शिला नहीं फोड़ सकता तैसे ही धैर्यवान को संसार का ताप नहीं खण्डन कर सकता। जिसके आधि-व्याधि दुःख देते हैं उसे जानिये कि वह परमार्थ-दर्शन से शून्य है । हे मुनीश्वर! जो पुरुष स्वरूप में सावधान हुए हैं उनको कोई दुःख स्पर्श नहीं करता और स्वम में भी उनको दुःख का अनुभव नहीं होता क्योंकि उनका चित्त सावधान है इससे तुम भी दृढ़ पुरुषार्थ करके मन से मन को मारो तो जगत्भ्रम नष्ट हो जावेगा। हे मुनीश्वर! जिसको स्वरूप का प्रमाद होता है उसको षण में जगभ्रम दृढ़ हो जाता है। जैसे बालक को क्षण में वैताल भासि भाता है तैसे ही प्रमाद से जगत् भासता है। हे मुनीश्वर! मनरूपी कुलाल है और वृत्तिरूपी मृत्तिका है; उस