पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३३७

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उत्पत्ति प्रकरण।

है। मन में जो स्फूर्ति होती है वही क्रिया है और वही कर्म है। उस मन से क्रिया कर्म अवश्य सिद्ध होता है अन्यथा नहीं होता। ऐसा पर्वत और आकाशलोक कोई नहीं जिसको प्राप्त होकर कमों से छुटे; जो कुछ मन के सङ्कल्प से किया है वह अवश्यमेव सिद्ध होता है। पूर्व जो पुरुपार्थ प्रयत्न कुछ किया है वह निष्फल नहीं होता, अवश्यमेव उसकी प्राप्ति होती है। हे रामजी! ब्रह्म में जो चैत्यता हुई है वही मन है और कर्मरूप है और सब लोकों का बीज है कुछ भिन्न नहीं। हे रामजी! जब कोई देश से देशान्तर जाने लगता है तब जाने कासंकल्पही उसे ले जाता है, वह चलना कर्म है इससे स्फूर्तिरूप कर्म हुमा और स्फूर्तिरूप मन का भी है इससे मन और कर्म में कुछ भेद नहीं। अक्षोभ समुद्ररूपी ब्रह्म है इसमें द्रवतारूपी चैत्यता है। वह चैत्यता जीवरूप है और उसही का नाम मन है। मन कर्मरूप है इसलिए जैसे मन फुरता है और जो कुछ मन से कार्य करता है वही सिद्ध होता है, शरीर से चेष्टा नहीं सिद्ध होती। इस कारण कहा है कि मन और कर्म में कुछ भेद नहीं पर भिन्न-भिन्न जो भासता है सो मिथ्या कल्पना है। मिथ्या कल्पनामूर्ख करते हैं बुद्धिमान नहीं करते जैसे समुद्र और तरङ्गों में भेद मूर्ख मानते हैं, बुद्धिमान को भेद कुछ नहीं भासता। प्रथम परमात्मा से मन और कर्म इकट्ठे ही उपजे हैं। जैसे समुद्र में द्रवता से तरङ्ग उपजते हैं तैसे ही चित्त फुरने से आत्मा से कर्म उपजते हैं। जैसे तरङ्ग समुद्र में लीन होते हैं तैसे ही मन और कर्म परमात्मा में लीन होते हैं। जैसे जो पदार्थ दर्पण के निकट होता है उसी का प्रतिबिम्ब भासता है तैसे ही जो कुछ मन का कर्म होता है सो आत्मारूपी दर्पण में प्रतिविम्बित भासता है। जैसे बरफ का रूप शीतल है—शीतलता विना बरफ नहीं होती तैसे ही चित्त कर्म है—कों बिना चित्त नहीं होता। जब चित्त से स्पन्दता मिट जाती है तब चित्त भी नष्ट हो जाता है। चित्त के नष्ट हुए कर्म भी नष्ट हो जाते हैं और कर्म के नाश हुए मन का नाश होता है जो पुरुष मन से मुक्त हुआ है वही मुक्त है और जो मन से मुक्त नहीं हुआ वही बन्धन में है। एक के नाश हुए दोनों का नाश होता है जैसे अग्नि के नाश