पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३३८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३३२
योगवाशिष्ठ।

हुए उष्णता भी नष्ट होती है और जब उष्णता नष्ट होती हे तब अग्नि भी नष्ट होता है तैसे ही मन के नष्ट हुए कर्म भी नष्ट होते हैं और कर्म कानाश होने से मन भी नष्ट होता है। एक के प्रभाव से दोनों का प्रभाव होता है। कर्मरूपीचित्त है और चित्तरूपीकर्म है इससे परस्पर अभेदरूप है।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे कर्मपौरुषयोरैक्य प्रतिपादन
न्नामैकसप्ततितमस्सर्गः॥७१॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! मन भावनामात्र है। भावना फुरने का नाम है और फुरना क्रियारूप है। उस फुरना क्रिया से सर्वफल की प्राप्ति होती है। रामजी बोले, हे ब्राह्मण! इस मन का रूप जो जड़-अजड़ है वह विस्तारपूर्वक कहिए। वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! आत्मतत्त्व अनन्तरूप और सर्वशक्तिमान है। जब उसमें संकल्पशक्ति फुरती है तब उसको मन कहते हैं, जड़ भजड़ के मध्य में जो डोलायमान होता है उस मिश्रितरूप का नाम मन है। हे रामजी! भावरूप जो पदार्थ उनके मध्य में जो सत्य असत्य का निश्चय करता है उसका नाम मन है। उसमें जो यह निश्चय देह से मिलकर फुरता है कि मैं चिदानन्दरूप नहीं, कृपण हूँ सो मन का रूप है। कल्पना से रहित मन नहीं होता जैसे गुणों विना गुणी नहीं रहता तैसे ही कर्म कल्पना विना मन नहीं रहता। जैसे उष्णता की सत्ता अग्नि से भिन्न नहीं होती तैसे ही कर्मों की सत्तामन से भिन्न नहीं होती और मन और शरीर आत्मा में कुछ भेद नहीं। हे रामजी! मनरूपी बीज से सङ्कल्परूपी नाना प्रकार के फूल होते हैं, उसमें नाना प्रकार के शरीरों से संपूर्ण जगत् देखता है और जैसी जैसी मन में वासना होती है उसके अनुसार फल की प्राप्ति होती है। इससे मनकारना ही कर्मों का वीज है और उससे जो भिन्न क्रिया होती है सोउस वृक्ष की शाखा और नाना प्रकार के विचित्र फल हैं। हे रामजी! जिस भोर मनका निश्चय होता है उसी भोर कर्म इन्द्रियाँ भी प्रवर्तित होती हैं और जो कर्म है वही मनका फुरना है और मन हीस्कृर्तिरूप है। इसी कारण कहा है कि मन ही कर्मरूप है। उस मन की इतनी संज्ञा कही हैं मन, बुद्धि, महङ्कार, कर्म, कल्पना, स्मृति, वासना, अविद्या, प्रकृति, माया इत्यादिक। कल्पनाही संसार के कारण हैं, चित्तको