पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३४०

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योगवाशिष्ठ।

उससे जब संकल्प जाल उठता है तब उसको जीव कहते हैं, मन भी इसी का नाम है, चित्त भी इसी का नाम है और कन्ध भी इसी का नाम है। हे रामजी! परमार्थ शुद्ध चित्त ही चैत्य के संयोग से भोर स्वरूप से बरफ की नाइ स्थित हुआ है। रामजी बोले, हे भगवन्! यह मन जड़ है किंवा चेतन है, एक रूप मुझमे कहिये कि मेरे हृदय में स्थित हो? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! मन जड़ नहीं और चेतन भी नहीं, जड़ चेतन की गाँठ के मध्यभाव का नाम मन है और संकल्प विकल्प में कल्पित रूप मन है। उस मन से यह जगत् उत्पन्न हुआ है और जड़ और चेतन दोनों भावों में डोलायमान है अर्थात् कभी जड़भाव की भोर भाता है और कभी चेतनभाव की ओर भाता है। शुद्ध चेतनमात्र में जो फुरना हुआ उसी का नाम मन है और मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, जीवादिक अनेक संज्ञा उसी मन की हैं। जैसे एक नट अनेक स्वांगों से अनेक संज्ञा पाता है—जिसका स्वांग धरता है उसी नाम से कहाता है तैसे ही संकल्प से मन अनेक संज्ञा पाता है। जैसे पुरुष विचित्र कर्मों से अनेक संज्ञा पाता है—पाठ से पाठक; और रसोई से रसोइयाँ कहाता है तैसे ही मन अनेक संकल्पों से अनेक संज्ञा पाता है। हे रामजी! येजो मैंने तुमसे चित्त की अनेक संवा कही हैं उनके अन्य भन्य बहुत प्रकार वादियों ने नाम रक्खे हैं, जैसा जैसा मन है तैसा ही तैसा स्वभाव लेकर मन, बुद्धि और इन्द्रियों को मानते हैं। कोई मन को जड़ मानते हैं; कोई मन से भिन्न मानते हैं और कोई अहंकार को भिन्न मानते हैं वे सब मिथ्या कल्पना हैं। नैयायिक कहते हैं कि सृष्टि तत्त्वों के सूक्ष्म परमाणुवों से उपजती है जब प्रलय होता है तब स्थूलतत्त्व प्रलय हो जाते हैं और उनके सूक्ष्म परमाणु रहते हैं और फिर उत्पत्तिकाल में वही सूक्ष्म परमाण दूने तिगुने आदिक होकर स्थूल होते हैं; उनहीं पाँचों तत्त्वों से सृष्टि होती है। सांख्यमतवाले कहते हैं कि प्रकृति और माया के परिणाम से सृष्टि होती है और चार्वाक पृथ्वी, जल, तेज, वायु, चारों तत्त्वों के इकट्ठे होने से सृष्टि उपजती मानते हैं और चारों तत्त्वों के शरीर को पुरुष मानते हैं और कहते हैं कि जब तत्त्व अपने आपसे बिछुड़ जाते हैं