पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३४२

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योगवाशिष्ठ।

होता। मन केवल चैतन्य भी नहीं; केवल चैतन्य तो आत्मा है जिसमें कर्तृत्व आदि कल्पना नहीं होती इससे मन केवल चैतन्य भी नहीं और केवल जड़ भी नहीं चैतन्य और जड़ का मध्यभाव ही जगत् का कारण है। हे रामजी! जैसे प्रकाश सब पदार्थों के प्रकाश का कारण है तैसे ही मन सब अर्थों का कारण है। जब तक चित्त है तब तक चैत्य भासता है और जब चित्त अचित्त होता है तब सर्व भूतजात लीन हो जाते हैं। जैसे एक ही जल रस से अनेकरूप हो भासता है तैसे ही एक ही मन भनेक पदार्थरूप होकर भासता है और अनेक संज्ञा इसकी शास्त्रों के मतवालों ने कल्पी हैं। सवका कारण मन ही है और परम देव परमात्मा की सर्व शक्तियों में से एक शक्ति है। उसी परमात्मा से यह फुरी है और जड़भाव फुरकर फिर उसही में लीन होती है। जैसे मकड़ी अपने मुख से जाला निकालकर फैलाती है और फिर आपही में लीन कर लेती है तैसे ही परमात्मा से यह जड़भव उपजा है। हे रामजी! नित्य शुद्ध और बोधरूप ब्रह्म है; वह जब प्रकृतभाव को प्राप्त होता है तब अविद्या के वश से नाना प्रकार के जगत् को धारता है और उसही के सर्व पर्याय हैं। जीव, मन, चित्त, बुद्धि, अहंकार इत्यादिक संज्ञा मलीन चित्त की होती हैं। ये संज्ञाएँ भिन्न भिन्न मतवादियों ने कल्पी है पर हमको संज्ञा से क्या प्रयोजन है।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे मनःसंज्ञाविचारोनाम
दिसप्ततितमस्सर्गः॥७२॥

रामजी ने पूछा; हे भगवन्! यह सब जगत् आडम्बर मन ही ने रचा है और सब मनरूप है और मन ही कर्मरूप है—यह आपके कहने से मैंने निश्चय किया है, परन्तु इसका अनुभव कैसे हो? वशिष्ठजी बोले हे रामजी! यह मन भावनामात्र है। जैसे प्रचण्ड सूर्य की धूप मरुस्थल में जल हो भासती है तैसे ही आत्मा का आभासरूप मन होता है। उस मन से जो कुछ जगत् भासता है वह सब मनरूप है; कहीं मनुष्य, कहीं देवता, कहीं दैत्य, कहीं पक्षी, कहीं गन्धर्व, कहीं नागपुर मादिक जो कुछ रूप भासते हैं वे सबही मन से विस्तार को प्राप्त हुए हैं, पर वे